Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
"मरुआ (मुरिया)णं अट्ठसयं" -इस प्रकार है । अवश्य ही यह पाठ भी अशुद्ध है पर इस उपन्यास में से अशुद्धि का मूल हम जल्दी पकड़ सकते हैं ।।
वस्तुतः "मुरियाणं अट्ठसयं' की जगह "मुरियाणं सट्ठिसयं" पाठ था, पर लेखक की गलती से "सट्ठिसयं" के "स" के स्थान "म" हो गया,९१ पिछले शोधकों ने इस "मट्ठिसयं" का अर्थ एक सौ आठ किया
९१. केवल 'सट्ठिसय' में ही 'स' के स्थान पर 'म' नहीं हुआ, दूसरे भी अनेक शब्दों में 'स' के 'म' और 'म' के 'स' हुए तित्थोगाली की प्रति में अभी तक दृष्टिगोचर हो रहे हैं, पाठकगण के दर्शनार्थ हम इस विषय के थोड़े से उदाहरण यहाँ उद्धृत करेंगे।
'स' का 'म' होने के उदाहरणतित्थोगाली पत्र, गाथा, पाद ।
अशुद्ध पाठ मुरा० । ९। २०८-२। एरवयवामे । १३ । ३१६-२ । निमुंभे य । २३ । ६१०-२ । मंजतो । २६ । ६८०-२ । मुयनिसिल्लो । ३० । ८०९-४ । मुयरयण । ३२ । ८४९-४ । मंकिण्णा । ३४ । ९१२-४ । भमुंडिय । ३६ । ९५०-१ । मुणिविट्ठो । ४५ । ११९९-४ ।
'म' का 'स' होने के उदाहरणपरीसाणं । १ । १३-४ । सुहकमला । ११ । २७०-४ । धणियसुज्जंता । २५ । ६६७-२ ।
सुवट्ठिओ । २९ । ७६८-४ । सुतिहिति । ३५ । ९३५-३ । सुस्सुर । ३५ । ९३७-२-४ । सासणे । ३९ । १०५०-२ ।
शुद्ध पाठ सुरा० । एरवयवासे । निसुंभे य । संजतो । सुयनिसिल्लो । सुयरयण । संकिण्णा । भसुंडिय । सुणिविट्ठो ।
परीमाणं । मुहकमला । धणियमुज्जंता । मुवट्ठिओ । मुतिहिति । मुम्मुर । मासणे ।
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