Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
(२) आर्य महागिरि के स्वर्गसमय को संप्रति के राजत्वकाल ( २९५) के नजदीक ले जाना, अथवा
(३) आर्य महागिरि ने संप्रति का राज्य देखा ही नहीं यह मान लेना ।
इनमें से पहली बात मान लेने का अर्थ होगा निर्वाण और शक संवत्सर का अंतर बतानेवाली प्राचीन और व्यवस्थित गणनापद्धति को ठुकराकर एक निराधार कल्पना को जन्म देना कि जिसके परिणाम स्वरूप गर्दभिल्ल और बलमित्र भानुमित्र संबंधी कालकाचार्यवाली सब घटनाएँ बिलकुल असंगत हो जायगी, जिनका कि ४५३ के निकट होना युगप्रधानत्व कालगणना-पद्धति से भी प्रमाणित होता है । इसलिये प्रथम उपाय हमारे लिये किसी काम का नहीं है ।
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दूसरे उपाय के औचित्य में भी हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है । यद्यपि पट्टावलियों और स्थविरावलियों से जुदा पड़कर मैं आर्य महागिरिजी का स्वर्गवास निर्वाण संवत् २६१ में मानता हूँ पर इससे भी संप्रति के राज्य के साथ इनका संबंध नहीं जुड़ सकता, इसलिये अब यह तीसरा उपाय ही हमारे लिये स्वीकार्य कल्पना है कि 'आर्य महागिरिजी ने संप्रति का राज्य देखा ही न था ।'
यद्यपि पूर्वोक्त संप्रति के राज्यकाल में असांभोगिकता का प्रारंभ होना लिखा है, पर मेरी समझ में यह घटना संप्रति के समय की नहीं है, पर पिछले लेखकों ने इसको संप्रति - चरित्र के साथ जोड़ दिया है । मेरी इस मान्यता के कारण ये हैं
१ - जहाँ जहाँ उक्त घटना का वर्णन है, वहाँ सर्वत्र विधेयता 'असांभोगिकता' की है, न कि संप्रति के चरितांश की ।
२- उक्त कथांश में कहीं भी संप्रति का स्पष्ट नामोल्लेख न होकर केवल अनुवृत्ति से उसका बोध किया जाता है ।
३- कल्पचूर्णि के लेख से स्पष्ट है कि आर्यसुहस्तीजी जीवित स्वामी
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