Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 128
________________ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना १०९ भावतो विप्रनष्टम् । तत्परावर्तनादेरभावात्, ततो द्वादशवर्षानन्तरमुत्पन्ने सुभिक्षे मथुरापुरि स्कन्दिलाचार्यप्रमुखश्रमणसंधेनैकत्र मिलित्वा यो यत् स्मरति स तत्कथयतीत्येवं कालिकश्रुतं पूर्वगतं च किंचिदनुसन्धाय घटितं, यतश्चैतन्मथुरापुरि संघटितमत इयं वाचना 'माथुरी' त्यभिधीयते, सा च तत्कालयुगप्रधानानां स्कन्दिलाचार्याणामभिमता तैरेव चार्थतः शिष्यबुद्धि प्रापितेति तदनुयोगः तेषामाचार्याणां सम्बन्धीति व्यपदिश्यते । अपरे पुनरेवमाहुः-न किमपि श्रुतं दुर्भिक्षवशात् अनेशत्, किन्तु तावदेव तत्काले श्रुतमनुवर्तते स्म। केवलमन्ये प्रधाना येनुयोगधराः ते सर्वेपि दुर्भिक्षकालकवलीकृताः, एक एव स्कंदिलसूरयो विद्यन्ते स्म। ततस्तैर्दुर्भिक्षापगमे मथुरापुरि पुनरनुयोगः प्रवर्तित इति वाचना माथुरीति व्यपदिश्यते, अनुयोगश्च तेषामाचार्याणामिति ।" -नन्दी ५१ । इस वाचना के वर्णन में हमने 'जिसे जो आगमसूत्र या उसका खंड याद था वह उससे लिख लिया गया' यह जो उल्लेख किया है इसके संबंध में जरा स्पष्टीकरण आवश्यक है। हम लोगों की सामान्य मान्यता यह है कि हमारे आगम-शास्त्र देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समय वीर निर्वाण संवत् ९८० में ही पुस्तकों पर लिखे गए थे, उसके पहले तमाम आगम आचार्यों और साधुओं के मुखपाठ होते थे । "वलहिपुरम्मि नयरे, देवढिपमुहेण समणसंघेण । पुत्थइ आगमु लिहिओ, नवसयअसीआओ वीराओ ॥" -इत्यादि परंपरागत गाथाओं का हम यही अर्थ मान लेते हैं कि पहले पहल हमारा शास्त्र देवद्धिगणि के समय में लिखा गया, परन्तु वस्तुस्थिति इससे भिन्न है । देवद्धिगणि के समय में शास्त्र लिखा गया इस बात से हम इनकार नहीं करते, पर हम यह भी नहीं कह सकते कि उसके पहले हमारे आगम-शास्त्र लिखे नहीं गए थे । अनुयोगद्वारसूत्र में पत्र पुस्तक पर लिखे हुए श्रुत को द्रव्यश्रुत कहा है । देखो अनुयोगद्वार का निम्नलिखित वाक्य“से किं तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्तं दव्वसुअं ? पत्तयपोत्थयलिहिअं" -अनुयोगद्वारसूत्र ३४ । यदि देवद्धिगणि के पहले आगम लिखे हुए नहीं होते तो अनुयोगद्वार में द्रव्यश्रुत के वर्णन में पुस्तकलिखित श्रुत का उल्लेख नहीं होता । इससे यह बात तो निश्चित है कि देवद्धिगणि के समय से बहुत पहले जैन शास्त्र लिखे जाने की प्रवृत्ति हो चली थी । छेदसूत्रों में साधुओं को कालिकश्रुत और कालिकश्रुत नियुक्ति के लिये पाँच प्रकार की पुस्तकें रखने का अधिकार दिया गया है । देखो निशीथचूणि का निम्नलिखित पाठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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