Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
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था वह टीका में लिख दिया गया, पर जिन पाठांतरों को नागार्जुनानुयायी किसी तरह छोड़ने को तैयार न थे, उनका मूलसूत्र में भी "वायणंतरे पुण" इन शब्दों के साथ उल्लेख कर दिया ।७९ कल्पसूत्र का - "नागार्जुनीयास्तु पठंति-पलिमंथमहं वियाणिया०।"
-सूत्रकृतांग टीका ६४ । "तओ विवरणकरेहि पि नागाज्जुणीया उण एवं पढंतित्ति समुल्लिंगिया तहेवायाराइसु ।"
-कथावली २९८ । इन पाठांतर-उल्लेखों से यह बात स्वत: सिद्ध हो जाती है कि पुस्तकलेखन के समय में माथुरी वाचनानुगत स्कंदिलाचार्य के अनुयोग को मुख्य मान लेने से ही गणिजी को नागार्जुनीय वाचनागत पाठों को पाठांतर मानना पड़ा होगा ।
(७) इसी लेख में हम आगे जाकर देखेंगे कि पूर्वकाल में जैनों में दो युगप्रधान परंपराएँ प्रचलित थीं, एक माथुरी और दूसरी वालभी । वीर निर्वाण संवत् के विषय में दोनों परंपराओं की मान्यता भिन्न भिन्न थी । देवद्धिगणि के सिद्धांत-लेखनकाल में माथुरी परंपरा के कथनानुसार निर्वाण का ९८० वाँ वर्ष चलता था, तब वालभीवाचनानुयायियों की मान्यता के अनुसार वह ९९३ वाँ वर्ष था । इन दोनों मान्यताओं को देवद्धिजी ने कल्पसूत्र में उल्लिखित किया है, जिसमें माथुरी वाचनानुगत समय विषयक मान्यता को उन्होंने सैद्धांतिक मानकर क्रमप्राप्त स्थान में लिखा और १३ वर्ष के अंतरवाली वालभी वाचनानुगत मान्यता को वाचनांतर की मान्यता कहकर पाठांतर के ढंग से लिखा है।
इन सब बातों का विचार करने पर यही कहना पड़ता है कि देवर्द्धिगणिजी ने माथुरी वाचना को मुख्य मानकर तदनुसार आगमों को लिखाया था ।
७९. यद्यपि देवद्धि के पुस्तकलेखन के कार्य का विशेष प्रकाश करनेवाला कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता तथापि कार्य की गुरुता देखते हुए यह कहना कुछ भी असंभवित नहीं होगा कि इस कार्य-संघटन-समय में दोनों वाचनानुयायी संघो में अवश्य ही संघर्षण हुआ होगा । अपनी अपनी परंपरागत वाचना को ठीक मनवाने के लिये अनेक कोशिशें हुई होंगी और अनेक काटछांट होने के उपरांत ही दोनों संघों में समझौता हुआ होगा । हमारे इस अनुमान की पुष्टि में निम्नलिखित गाथा उपस्थित की जा सकती है
"वालब्भसंघकज्जे , उज्जमिअं जुगपहाणतुल्लेहिं । गंधव्ववाइवेयाल-संतिसूरीहिं वलहीए ॥२॥"
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