Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
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यह देवद्धि का निर्देश करनेवाली गाथा विद्यमान है। हो सकता है कि यह गाथा देवद्धिगणि की रचना न हो, पर इस थेरावली के अंत में इस गाथा का न्यास होने से यह बात तो निश्चित हो जाती है कि यह थेरावली देवद्धिगणि की गुरु-परंपरा है । और इस प्रकार जब देवर्द्धिगणि कल्पसूत्रोक्त थेरावली की आर्यसुहस्ती की परंपरा के स्थविर सिद्ध हो गए तो उन्हें आर्यमहागिरीय शाखा का स्थविर कहनेवाला वृद्ध संप्रदाय सत्य कैसे हो सकता है ?
(२) नंदी-थेरावली गुरु-शिष्य-परंपरा न होने का कारण यह भी है कि उसमें संभूतविजय के बाद भद्रबाहु का और महागिरि के बाद सुहस्ती का वर्णन किया गया है, यदि इसमें गुरु-शिष्य-क्रम से स्थविरों का वर्णन होता तो यहाँ संभूतविजय के पीछे उनके शिष्य स्थूलभद्र का और महागिरि के बाद उन्हीं के पट्टधर शिष्य बलिस्सह का उल्लेख होता । क्योंकि जहाँ गुरु शिष्यों की पट्टपरम्परा की दृष्टि से पट्टावलियाँ लिखी गई हैं वहाँ संभूतविजय के पीछे उनके पट्टधर स्थूलभद्र का ही नाम लिखा गया है, महागिरि की शाखा में स्थूलभद्र के पीछे महागिरि और उनके बाद उनके शिष्य बलिस्सह का स्थान है । ऐसे ही सुहस्ती की शाखा में स्थूलभद्र, सुहस्ती, सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध इस क्रम से गुरुपरम्परा लिखी जाती थी, पर जहाँ युगप्रधानों की पट्टपरंपरा दिखाने का उद्देश होता वहाँ संभूतविजय के बाद भद्रबाहु और महागिरि के पीछे सुहस्ती का नंबर आता । हम नंदी थेरावली में देखते हैं कि देवद्धि ने संभूतविजय के बाद भद्रबाहु और महागिरि के बाद सुहस्ती को स्थविर माना है, इससे ज्ञात होता है कि यह थेरावली गुरु-क्रमावली थेरावली नहीं पर युग-प्रधान क्रमावली है ।
(३) किसी भी ग्रंथ या प्रकरण के प्रारंभ में अपनी गुरु-परंपरा लिखने का और उसे वंदन करने का रिगज नहीं था, पर ग्रंथ के अंत में ऐसी परंपरा-प्रशस्तियाँ लिखने मात्र का रिवाज था और अब भी है, ग्रंथ के प्रारंभ में उन्हीं पुरुषों का स्मरण-वंदन किया जाता था जो प्रकृत विषय के अधिक विद्वान् और मार्गदर्शक हो गए हों, गणिजी ने नंदी में ऐसे पुरुषों की परंपरा का ही वर्णन-वंदन किया है जो अपने अपने समय में आगम के अनुयोग में सर्वश्रेष्ठ होकर युगप्रधान पद भोग चुके थे । गणिजी के अपने शब्दों से भी यही साबित हो रहा है कि नंदी में उन्होंने अपनी गुरु-परंपरा का नहीं परंतु अनुयोगधर युगप्रधान परंपरा का ही वंदन किया है । देखो थेरावली के अंतिम शब्द
"जे अन्ने भगवन्ते, कालिअसुअआणुओगिए धीरे । ते पणमिऊण सिरसा, नाणस्स परूवणं वुच्छं ॥५०॥"
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