Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
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इसलिये यह "माथुरी वाचना'' कहलाती है ।
जिस प्रकार भद्रबाहु के समय में दुर्भिक्ष के कारण श्रुत-परंपरा छिन्न भिन्न हो गई थी, उसी तरह आचार्य स्कंदिल के समय में भी दुष्काल के कारण आगमश्रुत अव्यवस्थित हो गया था, कितने ही श्रुतधर स्थविर परलोकवासी हो चुके थे, विद्यमान श्रमणगण में भी पठन पाठन की प्रवृत्तियाँ बंद हो चली थीं । उस समय उस प्रदेश में आचार्य स्कंदिल ही एक विशेष श्रुतधर रहने पाए थे । दुर्भिक्ष का संकट दूर होते ही आचार्य स्कंदिलजी की प्रमुखता में मथुरा में श्वेतांबर श्रमणसंघ एकत्र हुआ और आगमों को व्यवस्थित करने में लग गया । जिसे जो आगमसूत्र या उसका खंड याद था वह लिख लिया गया । इस तरह आगम और उनका अनुयोग लिखके व्यवस्थित करने के बाद स्थविर स्कंदिलजी ने उसके अनुसार साधुओं को वाचना दी, इसी कारण से यह वाचना "स्कांदिली वाचना' नाम से भी प्रसिद्ध है । गणना में आर्यवज्र के बाद वज्रसेन के अस्तित्व के ३३ वर्ष ही गिने हैं पर चाहिए थे ३६ वर्ष, क्योंकि वज्र के बाद १३ वर्ष आर्यरक्षित, २० वर्ष पुष्यमित्र और उनके बाद ३ वर्ष तक वज्रसेन युगप्रधान रहे थे, इसलिये वज्र के बाद वज्रसेन ३६ वर्ष तक जीवित रहे । उनके बाद नागहस्ति ६९, रेवतिमित्र ५९ और ब्रह्मद्वीपकसिंह ७८ वर्ष तक युगप्रधान रहे । कुल विक्रम वर्ष ३५६ (११४ + ३६ + ६९ + ५९ + ७८ = ३५६) सिंहसूरि के स्वर्गवास तक हुए, इसके बाद आचार्य स्कंदिल का युगप्रधानत्वपर्याय शुरू हुआ ।
_ आचार्य मेरुतुंग ने स्कंदिल, हिमवत्, नागार्जुन इन तीनों स्थविरों के युगप्रधानत्व पर्याय के एकत्र ७८ वर्ष लिखे हैं, पर यह नहीं बताया कि इनमें से किनके कितने वर्ष लेने चाहिए ।
गाँव मुंडारा के यतिजी पं० यशस्वतसागरजी के पुस्तकभंडार में दुष्षमा संघ-स्तोत्र की प्रति के अंत में देवद्धिगणि पर्यंत के स्थविरों की पट्टावली दी हुई है, उसमें स्कंदिलाचार्य का युगप्रधानत्व समय वीर संवत् ८०० से ८१४ तक १४ वर्ष का लिखा है । बहुत प्राचीन न होने के कारण हम इस पट्टावली पर ज्यादा विश्वास नहीं कर सकते तब भी इसमें लिखे अनुसार स्कंदिल के युगप्रधानत्व के १४ वर्ष ठीक मान लें तो अनुयोगप्रवर्तक स्कंदिलाचार्य का समय विक्रम संवत् ३५७ से ३७० (वी० नि० ८२७ से ८४०) तक मानना कुछ भी अनुचित नहीं है।
७३. माथुरी वाचना के विषय में अनेक जैन ग्रंथों में उल्लेख तो मिलते हैं, पर पाटलि पुत्री वाचना का जितना विस्तृत और विशद वर्णन मिलता है उतना वर्णन इसका कहीं
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