Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
को वन्दन करने के लिये उज्जयिनी में आए; उसके बाद संप्रति जैन हुआ था ।
निशीथ चूर्णि का भी यही भावार्थ है कि विदिशा में जीवत्स्वामि को वन्दन करने के लिये आर्य सुहस्ती गए । उसके बाद संप्रति को सुहस्ती का समागम हुआ और आचार्य के उपदेश से वह जैन हुआ ।६९
अब इसी विषय में आवश्यक चूर्णिकार का मत सुन लीजिए । वे लिखते हैं
६९. कल्पचूणि और आवश्यकचूर्णि के लेखों से स्पष्ट है कि संप्रति को आर्य सुहस्ती का समागम उज्जयिनी में हुआ और वहीं उसे प्रतिबोध हुआ था, पर निशीथ चूणि का उल्लेख कुछ और ही बात की सूचना करता है । इस उल्लेख के शब्द यह सूचना देते हैं कि 'अन्य दिन आचार्य विदिशा में जीवितस्वामि की प्रतिमा के वन्दन करने को गए, वहाँ रथयात्रा निकली । राजा का मकान रथ के मार्ग पर ही था । रथ राजमहल के पास पहुँचा । गवाक्ष में बैठे हुए राजा संप्रति ने यात्रा में चलते हुए आर्य सुहस्ती को देखा, और देखते ही उसे पूर्वभव का ज्ञान हो गया । तुरंत महल से उतरकर राजा नीचे आया और आचार्य के पैरों में पड़कर उसने प्रश्न किया, 'भगवान्, आप मुझे जानते हैं ?' आचार्य ने तनिक ध्यान लगाकर सोचा और वे बोले-हाँ, मैं जानता हूँ, तू मेरा पूर्वभव का शिष्य है।
विदिशा में संप्रति के जैन होने की सूचना करनेवाली यह नूतन परंपरा है, पर इसमें असंभव या आश्चर्य मानने का भी कोई कारण नहीं है, क्योंकि विदिशा भी उस समय की एक प्रसिद्ध नगरी थी । उसके अवन्ती के अधिकार में होने से वहाँ राजा का मकान और संप्रति का निवास होना भी स्वाभाविक है । विदिशा में स्थावर्त नामक एक अतिप्रसिद्ध जैन-तीर्थ था और वहाँ जीवंत-स्वामि की प्रतिमा भी थी ऐसा जैनसूत्रों से सिद्ध होता है । इस दशा में हि यह मान लिया जाय कि संप्रति का प्रतिबोध विदिशा में हुआ तो कोई हानि नहीं है।
उक्त घटना के प्रतिपादक निशीथ चूर्णि के मूल शब्द नीचे दिए जाते हैं
"अण्णया आयरिया वतीदिसं जियपडिमं वंदिया गता । तत्थ रहाणुउज्जाते रण्णो घरं रहोवरि अंचति । संपतिरण्णा ओलोयणगएण अज्जुसुहत्थी दिट्ठो । जातीसरणं जातं । आगओ पाएसु पडिओ पच्चुट्ठिओ विणओणओ भणति-भगवं अहं तं कहिं दिट्ठो, १ सुमरह। आयरिया उवउत्ता-आम दिट्ठो तुमं मम सीसो आसी । पुत्वभवो कहितो । आउट्ठो, धम्म पडिवण्णो । अतीव परोप्परं णेहो जातो।"
-निशीथचूणि १९१ ।
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