Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
आचार्य आर्य सुहस्ती जीवंत स्वामी को वंदन करने के लिये उज्जयिनी में आते हैं । रथयात्रा में चलते हुए आचार्य को संप्रति देखता है और उनके मुकाम पर जाकर वह जैन श्रावक हो जाता है ।
उपर्युक्त कथांश हमें स्पष्ट बताते हैं कि आर्य सुहस्ती और संप्रति का समागम तथा संप्रति का जैन धर्म स्वीकार करना ये सब बातें उज्जयिनी में उस समय की हैं जब संप्रति युवराजपद पर था । में कुनाल का अधिकार रद्द करके अशोक ने जिसे उज्जयिनी का राज्य दिया और संप्रति का जन्म होने पर उससे लेकर वापिस संप्रति को दिया वह अशोक का दूसरा पुत्र यही दशरथ हो।
६४. यद्यपि निशीथचूणि और उसके पीछे के ग्रंथों में रथयात्रा में जाते हुए आर्य सुहस्ती को देखकर संप्रति को जातिस्मरण ज्ञान होने और उसी समय अवलोकन से नीचे उतरके आचार्य को गुरु धारण करने का उल्लेख है तथापि कल्पचूर्णि के मत से आचार्य के मकान पर जाकर धर्म चर्चा कर संप्रति ने जैन धर्म को स्वीकार किया था । देखो कल्पचूणि का पाठ
"इतो य अज्जसुहत्थी उज्जेणि जियसामि वंदओ आगओ रहाणुज्जाणे य हिंडंतो राउलंगणपदेसे रन्ना आलोयणगतेण दिट्ठो, ताहे रन्नो ईहपोहं करेंतस्स जातं (जाइसरणं जातं) तहा तेण मणुस्सा भणिता-पडिचरह आयरिए कहि ठितत्ति तेहि पडिचरिउं कहितं सिरिघरे ठिता । ताहे तत्थ गंतुं धम्मो णेण सुओ, पुच्छितं धम्मस्स किं फलं ?, भणितं अव्यक्तस्य तु सामाइयस्स राजाति फलं सो संभंतो हानि (होति ?) सच्चं भणसि अहं भे कहिं चि दिटेल्लओ, आयरिएहि उवउज्जितं दिटेल्लओ त्ति ताहे सो सावओ जाओ पंचाणुव्वयधारी तसजीवपडिक्कमओ पभावओ समणसंघस्स ।"
अर्थात् 'इधर आर्य सुहस्ती जीवित स्वामी को वंदन करने के लिये उज्जयिनी को आए, और रथयात्रा में चलते हुए वे राजमहल के आँगन में आए । अवलोकन (झरोखे) में बैठे हुए राजा संप्रति को उन्हें देखते ही ईहापोहपूर्वक जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब राजा ने अपने आदमियों को कहा-'तलाश करो, आचार्य कहाँ पर ठहरे हैं।' आदमियों ने पता लगाकर राजा से निवेदन किया कि आचार्य का मुकाम श्रीघर में है। राजा उनके पास गया और धर्मोपदेश सुनने के बाद उसने प्रश्न किया कि 'धर्म का फल क्या है ?' आचार्य ने कहा 'अव्यक्त सामायिक धर्म का फल राजपद-प्राप्ति आदि है' यह सुनकर राजा ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा-सत्य कहते हो, महाराज ! आप मुझे पहिचानते हैं ? श्रुतज्ञान का उपयोग देकर आचार्य ने कहा-हाँ, तुम हमारे परिचित (पूर्व भव के शिष्य) हो । तब राजा श्रावक हो गया । वह पंचाणु-व्रतधारी त्रस जीवों की हिंसा का त्यागी और श्रमण-संघ की उन्नति करनेवाला श्रावक हो गया ।'
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