Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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के मार्ग में होना ५६ और इनके शिष्यों का ताम्रलिप्ति और पुंड्रवर्धन में चिरकाल रहना'" यह बताता है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु और उनका समुदाय दुर्भिक्ष के समय पूर्व देश को छोड़कर कहीं नहीं गया था" ।
वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
५६. देखो निम्नलिखित आवश्यक चूर्णि का लेख - "तंमि य काले बारसवरिसो दुक्कालो उवट्ठितो संजताइतो य समुद्दतीरे अच्छित्ता पुणरवि पाडलिपुत्ते मिलिता अण्णस्स उद्देसओ अण्णस्स खंडं एवं संघाडितेहिं तेहिं एक्कारस अंगाणि संघातिताणि, दिट्टिवादो नत्थि, नेपालवत्तणी भयवं भद्दबाहुस्सामी अच्छति चोद्दसपुव्वी ।"
- आवश्यक चूर्णि २५२
५७. स्थविर भद्रबाहु के शिष्य गोदास से निकले हुए गोदासगण की ४ शाखाएँ थीं, ऐसा कल्पसूत्र की " थेरावली' में लिखा है। देखो नीचे लिखी हुई कल्पसूत्र की पंक्तियाँ
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"थेरिहिंतो गोदासेहितो कासवगत्तेर्हितो इत्थणं गोदासगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ एवमाहिज्जंति, तंजहा - तामलित्तिया कोडीवरिसिया, पुंडबद्धणिया, दासीखब्बडिया ।"
इनमें पहली शाखा 'तामलित्तिया' की उत्पत्ति बंगाल देश की उस समय की राजधानी तामलित्ती वा ताम्रलिप्ति से थी, जो दक्षिणी बंगाल का एक प्रसिद्ध बंदर था । दूसरी शाखा 'कोडीवरिसिया' की उत्पत्ति कोटिवर्ष नगर से थी । यह नगर भी राढ़ देश ( आजकल के मुर्शिदाबाद जिला - पश्चिमी बंगाल ) की राजधानी थी । तीसरी शाखा 'पुंडबद्धणिया' थी, जो 'पुंड्रवर्द्धन' (उत्तरी बंगाल की राजधानी) से उत्पन्न हुई थी । इन तीनों शाखाओं के उत्पत्तिस्थान पूर्व समुद्र और गंगा नदी के निकट बंगाल में थे, इनमें अधिक समय तक निवास करने के कारण गोदासंगण के साधु-समुदाय की शाखाएँ इन स्थानों के नाम से प्रसिद्ध हुई थीं । इससे यह बात निश्चित है कि दुर्भिक्ष के समय में भद्रबाहु और उनका साधु- समुदाय बंगाल में, जहाँ सजलता के कारण दुष्काल का अधिक असर न था वहाँ ही, ठहरा था ।
५८. टिप्पणी नंबर ५६ में दिए हुए आवश्यक चूर्णि के पाठ में यह भी सूचित किया है कि दुर्भिक्ष के समय में साधु- समुदाय समुद्र के तट पर की बस्तियों में चला गया था । आचार्य हेमचंद्र भी परिशिष्ट पर्व में यही बात कहते हैं । देखो निम्नलिखित श्लोक
" इतश्च तस्मिन् दुष्काले कराले कालरात्रिवत् । निर्वाहार्थं साधुसंघस्तीरं नीरनिधेर्ययौ ॥५५॥ | "
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- परिशिष्ट पर्व सर्ग ९ ।
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