Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
'पुष्यमित्र' शब्द एकार्थक तो नहीं हैं, पर 'कल्कि यह नाम पुष्यमित्र का विशेषण हो सकता है । दोनों संप्रदायवाले कल्कि का वाहन घोड़ा बताते हैं । पौराणिक उसे 'देवदत्त' और 'आशुग' कहते हैं । जिनसुंदर सूरि प्रमुख जैन लेखक कल्कि के घोड़े को 'अदंत तुरंग' कहते हैं ।
संभव है कल्कि का यह घोड़ा 'कर्क' (श्वेत) होगा (सितः कर्को, रथ्यो वोढ़ा रथस्य यः - अमरकोश २ कांड क्षत्रिय वर्ग ८ । और कर्क वाहन से उसका सवार 'क' कहलाता होगा । कर्की को प्राकृत में 'कक्की' के रूप में लिखा होगा और पीछे से 'कक्की' का संस्कृत भाषा में 'कल्की' हो गया होगा । इस प्रकार धीरे धीरे विशेष नाम 'पुष्यमित्र' का स्थान 'कक्क' अथवा 'कल्की' ने ले लिया हो तो कुछ भी आश्चर्य नहीं है ।
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खारवेल के हाथीगुंफा के लेख से ज्ञात होता है कि उसने दो बार मगध के राजा पर चढ़ाई की थी । कल्की भी दो बार धार्मिक विप्लव मचाता है और साधुओं को सताता है । कहने की जरूरत नहीं है कि पुष्यमित्र जैन धर्म का परम विरोधी था और खारवेल परम पोषक, इसलिये कल्की- पुष्यमित्र के दोनों उत्पातों के समय खारवेल ने मगध पर चढ़ाई करके जैन श्रमणों का रक्षण किया था । जैन लेखकों का यह कथन कि 'दक्षिण लोक के स्वामी इंद्र ने आकर कल्की को सजा दी' पूरा पूरा खारवेल की ही और संकेत करता है । उस समय खारवेल जैन शासन में देव की योग्यता प्राप्त कर चुका था । हाथीगुंफा के लेख से ज्ञात होता है कि 'महा मेघवाहन' यह खारवेल की उपाधि थी । 'महा मेघवाहन' कहो या 'महेन्द्र' बात एक ही है । लेखकों ने इंद्र को 'दक्षिण लोकाधिपति' ऐसा विशेषण दिया है, वह भी खारवेल पर ही बैठता है, क्योंकि मगध की अपेक्षा कलिंग करीब दक्षिण दिशा में होने से खारवेल दक्षिण लोक का स्वामी कहा जाता होगा । कल्की को सजा देनेवाले इंद्र को ऐरावतगामी कहा है और खारवेल भी हाथी की सवारी से ही मगध पर चढ़ाई करके आया था, ऐसा उसके लेख से ज्ञात होता है । कल्की के समय में मथुरा में बलदेव और कृष्ण के मंदिर टूटने का 'तित्थोगाली' में उल्लेख मिलता है, खारवेल ने भी मथुरा पर चढ़ाई करके उत्तरापथ के राजाओं को भयभीत किया था यह बात हाथीगुंफा के लेख से ज्ञात होती है ।
इन सादृश्यों से मैं इस निर्णय पर आया हूँ कि जैनों का 'कल्की' वास्तव में पुष्यमित्र था जिसने जैन श्रमणों को तकलीफ दी थी और उसको सजा देने के लिये आनेवाला 'इंद्र' था कलिंग चक्रवर्ती 'खारवेल श्री' ।
वीर-४
व्यवहार सूत्र के छट्ठे उद्देशों की चूर्णि में निम्नलिखित वाक्य उपलब्ध होता है“मुड्डिवतो आयरितो सुहज्झाणो तस्स पूसमित्तेणं झाण विग्धं कतं ॥"
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