Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
पुराणों के इन उल्लेखों से यह पाया जाता है कि नंद राजा के समय में ब्राह्मण धर्म, 'राज्यधर्म' इस विरुद को खो चुका था । यों तो प्रद्योतों और शैशुनागों के समय में ही जैन और बौद्ध धर्म की उन्नति के साथ वैदिक धर्म पिछड़ने लग गया था पर फिर भी कभी कभी उसे राज्यसत्ता का सहारा मिल जाता था । पर मालूम होता है, नंद और मौर्य साम्राज्यकाल में वह सर्वथा राज्यसहाय से रहित हो गया था । यही कारण है कि ब्राह्मणों ने नंद के समय से कलियुग के प्रभाव की वृद्धि बताई है और राजाओं को शूद्र लिखा है । इससे यह बात तो निश्चित है कि नंद राजा और उसके उत्तराधिकारी वैदिक धर्म के अनुयायी नहीं थे । तो अब यह देखना रहा कि नंद जैन था या बौद्ध ?
जहाँ तक हमने देखा है, बौद्ध लेखक नंदों से बिलकुल अपरिचित हैं । दीपवंश में जहाँ सीलोन के राजाओं के साथ साथ मगध के राजाओं का समय बताया है, वहाँ नंदों का नामोल्लेख ही नहीं किया, और महावंश में नंदों का उल्लेख तो है, पर वहाँ सिर्फ २२ वर्ष ही उनके राजत्वकाल के दिए हैं। इससे ज्ञात होता है, बौद्ध लेखकों को नंदो का वास्तविक परिचय नहीं था । अगर नंद बौद्ध धर्मी होते तो बौद्ध लेखक उनसे इतने अनभिज्ञ नहीं रहते । इससे जाना जाता है कि नंद और उसके वंशज जैन धर्म के अनुयायी होंगे ।
'तित्थोगाली पइन्नय' और 'दीपमाला - कल्प' आदि में लिखा है कि 'एक बार नगरचर्या करते हुए कल्की ( पुष्यमित्र ) ने पांच स्तूप देखे और उनके संबंध में पूछा तब उत्तर में मनुष्यों ने कहा- नंद राजा ने जो बड़ा धनवान्, रूपवान और यशस्वी था यहाँ बहुत काल तक राज्य किया था । उसी ने ये स्तूप बनवाए हैं और इनमें अपार सुवर्णराशि गाड़ी है। जिसे अन्य कोई राजा ग्रहण नहीं कर सकता ।' यह सुनकर कल्की ने उन स्तूपों को खुदवाया और नंद राजा का वह सुवर्ण ले लिया । देखो नीचे की गाथाएँ
"सो अविणयपज्जत्तो, अण्णनरिंदे तणं पिव गणतो । नगरं आहिंडतो, पेच्छीहि पंचथूभे उ ||६३६ ||
पुट्ठा य बेंति मणुआ, नंदो राया चिरं इहं आसि । बलितो अत्थसमिद्धो, रूवसमिद्धो जससमिद्धो ॥६३७॥
तेण उ इहं हिरण्णं निक्खित्तं, सि बहु ( ? ) बलपमत्तेणम् । न य णं तरंति अण्णे रायाणो दाणि घित्तुं जे ||६३८ ॥
तं वयणं सोऊणं खणेहीति समंततो ततो थूभे । नंदस्स संतियं तं पडिवज्जइ सो अह हिरणं ॥ ६३९ || "
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