Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
जैन कालगणना
जैनों में कालगणना की दो पद्धतियाँ बनी हुई हैं- पहली प्रसिद्ध राजाओं के राजत्वकाल की गणना से और दूसरी स्थविरों के युग प्रधानत्व काल की गणना पर । इन दोनों पद्धतियों का प्रारंभ भगवान् महावीर के निर्वाणकाल से होता है ।
पहले हम राजत्व कालगणना पर ही विचार करेंगे ।
" तित्थोगाली पइन्नय" नामक प्राचीन जैन प्रकरण ग्रंथ में २७ महावीर - निर्वाण से शक संवत्सर के प्रारंभ तक के ६०५ वर्ष और ५ मास की कालगणना नीचे अनुसार गाथाबद्ध की है
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(सुस्थित) नामक वृद्ध आचार्य के होने के प्राचीन लेख तो मिलते हैं, पर भद्रबाहु - चंद्रगुप्त का गुरुशिष्य संबंध बतानेवाला उल्लेख विक्रम की दशवीं सदी के पहले के किसी भी लेख या ग्रंथ में हमारे देखने में नहीं आया ।
इसका पुत्र बिंदुसार किस धर्म का अनुयायी था, इस बात का अभी तक कोई निश्चय नहीं है । चंद्रगुप्त का उत्तराधिकारी होने से, टामस साहब के कथनानुसार, यह जैन हो तो कोई आश्चर्य नहीं है । पर बौद्धों के कुछ ऐसे भी उल्लेख हैं जिनसे इसका ब्राह्मणभक्त होना भी ध्वनित होता है ।
अशोक बौद्ध होने के पहले जैन था ऐसा कतिपय विद्वानों का कथन है ।
अशोक का उत्तराधिकारी संप्रति अथवा संपदी कट्टर जैन था इस प्रसिद्ध बात के लिये शायद ही प्रमाण देने की जरूरत होगी ।
संप्रति के बाद के मौर्य राजाओं का जैन ग्रंथकारों को अधिक परिचय नहीं है, इसका कारण संभवतः उनकी धार्मिक मंदता हो सकती है ।
२७. 'तित्थोगाली' प्रकरण के कर्ता का अथवा इसके रचना - समय का इस ग्रंथ में कहीं भी उल्लेख नहीं है । वैसे ही कहीं भी इसके संबंध में विशेष उल्लेख न होने से इसका वास्तविक निर्माणकाल बताना कठिन है तो भी कुछ ऐसे उल्लेख इसमें मौजूद हैं जिनके आधार पर हम इस ग्रंथ को विक्रम की पांचवीं सदी के आसपास पाटलिपुत्र में बना हुआ अनुमान कर सकते हैं ।
कल्की राजा की उत्पत्ति के संबंध में इसमें एक गाथा इस प्रकार है
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