Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
सो दाहिणलोगपती, धम्माणुमती अहम्मदुद्रुमती । जिणवयणपडिकुटुं, नासिहिति खिप्पमेव तयं ।।८८।। छासीतीउ समाउ, उग्गो उग्गाइ दंडनीतीए । भोत्तुं गच्छति निहणं, निव्वाणसहस्स दो पुन्ने ॥८९|| तस्स य पुत्तं दत्तं, इंदो अणुसासिऊण जणमज्झे ।
काऊण पाडिहेरं, गच्छइ समणे पणमिऊणं ॥९०॥" (८) "इत्युदित्वा स शक्रेण, मम निर्वाणतो गते ।
वर्षसहस्रद्वितये, भाद्रशुक्लाष्टमीदिने ॥२८४॥ ज्येष्ठक्ष रविवारे च, चपेटाप्रहतो रुषा । षडशीतिसमायुष्कः कल्कीराड् नरकं गमी ॥२८५॥"
___-जिनसुन्दरीय दीपालिकल्प । (९) "से भयवं केवइएणं कालेणं से सिरिप्पभे अणगारे भवेज्जा ?, गोयमा होही
दुरंतपंत लक्खण्णे अदट्ठव्वे रोद्दे चंडे पयंडे उग्गपयंडदंडे निम्मिरे निक्किवे निग्घिणे नित्तिंसे कूरपरपावमई अणारियमिच्छदिट्ठी कक्की नाम रायाणे से णं पावे पाहुडियं भमाडिउकाये सिरिसमणसंघकयत्थेज्जा जाव णं कयत्थे ताव णं गोयमा जे केई तत्थ सीलड्ढे महाणुभागे अचलियसत्ते तवोहण अणगारे तेसिं च पाडिहेरियं कुज्जा सोहम्मे कुलिसपाणी एरावणगामी सुरवरिंदे ॥"
-महानिशीथ ५ । ४६ । उपर्युक्त पौराणिक और जैन वर्णनों से यह बात तो प्रायः निश्चित है कि दोनों मतवालों का कथन एक ही व्यक्ति के संबंध में है ।
यद्यपि पुराणकार कल्कि का जन्म कलियुग के अंत में शंभल गाम में बताते हैं और जैन निर्वाण की बीसवीं सदी में पाटलिपुत्र में, तब भी हमें इन बातों की ओर ख्याल न करके यही कहना चाहिए कि दोनों धर्मवालों का कल्कि एक ही है । क्योंकि जो कल्कि का वर्णन पुराणों में हैं, वही जैन ग्रंथों में भी है । भेद इतना ही है कि पुराणकार उसके कामों को अवतारी पुरुषों के कार्यों में गिनते हैं और जैन एक अन्यायी
और अत्याचारी राजा के नाम से उसकी निंदा करते हैं । दोनों का कथन सापेक्ष है, और उसका कारण स्पष्ट हैं ।
अब हम इन कथनों की समालोचना करके देखेंगे कि इनमें कुछ ऐतिहासिक अंश भी है या कल्की विषयक वर्णन निराधार कल्पना ही है ।
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