Book Title: Vir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
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रहा । स्थविर यशोभद्र निर्वाण संवत् १४८ में संभूतिविजय और भद्रबाहु नामक अपने दो शिष्यों को उत्तराधिकारी बनाकर स्वर्गवासी हुए । तब से कभी कभी एक पाट पर दो दो आचार्य होने की प्रवृत्ति चली, पर इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि वे दोनों उत्तराधिकारी आपस में निरपेक्ष हो जाते थे । बात यह थी कि जब तक बड़ा पट्टधर जीवित रहता, छोटे पट्टधर का संघ के कार्य में हस्तक्षेप नहीं होता था । यशोभद्र के दो पट्टधरों में संभूतिविजय जब तक जीते थे, भद्रबाहु का संघ के कार्य में कुछ भी अधिकार नहीं था । नि० सं० १५६ में जब संभूतिविजयजी स्वर्गवासी हुए तभी भद्रबाहु को संघस्थविर का पद प्राप्त हुआ । नि० सं० १६० के आसपास पाटलिपुत्र में संघ एकत्र हुआ और भद्रबाहु को संघ समवसरण में बुलाया गया, पर उन्होंने इनकार कर दिया । इस पर संघ ने भद्रबाहु को न केवल धमकी ही दी बल्कि उनका अल्प समय के लिए बहिष्कार तक कर दिया, पर स्थविरजी जल्दी सम्हल गए और संघ से समझौता हो गया । इसके सिवा भद्रबाहु के समय में जैन श्रमण संघ में कोई झगड़ा नहीं हुआ । इस समय में दक्षिण के और उत्तर के जैन साधुओं में भिन्नता पड़ने की बात कही जाती है पर इसका कोई प्रमाण नहीं है । दिगंबरीय साहित्य में भद्रबाहु के दक्षिण में जाने और स्थूलभद्रादि कतिपय साधुओं के न जाने की जो कथाएँ लिखी गई हैं वे केवल अर्वाचीन कल्पनाएँ हैं । इस विषय में आधारभूत मानी जाती दिगम्बरीय बातें कैसी अव्यवस्थित और लचर हैं यह नीचे के विवरण से ज्ञात होगा ।
श्रवण बेलगोल की पार्श्वनाथ बस्ती के शक संवत् ५२२ के आसपास लिखे हुए एक शिलालेख में भद्रबाहु के वचन से उत्तरापथ से दक्षिणापथ की ओर जैनसंघ के जाने का उल्लेख मिलता है, पर उससे यह स्पष्ट नहीं होता कि भविष्यवेदी भद्रबाहु भी उसके साथ दक्षिण में गए थे । इसके उपरान्त उस लेख में रामल्य, स्थूलभद्र या भद्राचार्य का उल्लेख भी नहीं है।
- इसके बाद इस प्रसंग का उल्लेख शक सं० ८५३ में रचे हुए हरिषेण के 'बृहत्कथाकोष' में इस प्रकार मिलता है - 'एक समय विहार करते हुए भद्रबाहु उज्जैनी नगरी में पहुंचे और शिप्रा नदी के तीर उपवन में ठहरे । इस समय उज्जैनी में जैन धर्मावलंबी राजा चंद्रगुप्त अपनी रानी सुप्रभा सहित राज्य करता था । जब भद्रबाहु स्वामी आहार के निमित्त नगरी में गए तब एक गृह में झूले में झूलते हुए बालक ने चिल्लाकर उन्हें निकल जाने को कहा । इस निमित्त से आचार्य ने जाना कि बारह वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़नेवाला है । इस पर उन्होंने संघ को बुलाकर सब हाल निवेदन किया और कहा कि अब तुम लोगों को दक्षिण देश को चले जाना चाहिए, मैं स्वयं यहीं ठहरूँगा, क्योंकि मेरी आयु अब क्षीण हो चुकी है (अहमत्रैव तिष्ठामि, क्षीणमायुर्ममाऽधुना) ।'
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