Book Title: Vidhi Marg Prapa
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 16
________________ श्रीजिनप्रभ सूरिका खयं ही ऐसी व्यवस्था कर दूं ताकि भविष्यमें संघमें किसी प्रकारका कलह न हो और धर्म-प्रचारका कार्य सुचारु रूपसे चलता रहे। इसी अवसर पर (दिल्लीकी ओरके) श्रीमाल संघने आ कर आचार्यश्रीसे विज्ञप्ति की - 'भगवन् ! हमारी तरफ आजकल मुनियोंका विहार बहुत कम हो रहा है, अतः हमारे धर्मसाधनके लिये आप किसी योग्य मुनिको भेजें' । सूरिजीने पूर्वोक्त निमित्तका विचार कर श्रीमाल कुलोत्पन्न जिनसिंह गणिको सं० १२८० में (1) आचार्य पद और पद्मावती मंत्र दे कर कहा-'यह श्रीमाल संघ तुम्हारे सुपुर्द है; संघके साथ जाओ और उनके प्रान्तोंमें विहार कर अधिकाधिक धर्मप्रचार करो' । गुरुदेवकी आज्ञाको शिरोधार्य । कर श्रीजिनसिंह सूरि श्रावकोंके साथ श्रीमाल ज्ञातीय लोगोंके निवास स्थलोंमें विहार करने लगे। उपकारीके नाते समस्त श्रीमाल संघने श्रीजिनसिंह सूरिजीको अपने प्रमुख धर्माचार्य रूपमें माना । जिनमभ सूरिकी दीक्षा श्रीजिनसिंह सूरिजीने गुरुप्रदत्त पद्मावती मंत्रकी, छः मासके आयंबिल तप द्वारा साधना प्रारम्भ की। तत्परताके साथ नित्य ध्यान करने लगे। देवीने प्रगट हो कर कहा-'आपकी अब आयु बहुत थोड़ी रही है, अतः विशेष लाभकी संभावना कम है' । आचार्यश्रीने कहा-'अच्छा, यदि ऐसा है तो मेरे पट्टयोग्य शिष्य कौन होगा सो बतलावें, और उसे ही शासनप्रभावनामें प्रत्यक्ष व परोक्ष रूपसे सहायता दें। पद्मावती देवीने कहा-'सोहिलवाड़ी नगरीमें श्रीमाल जातिके तांबी गोत्रीय महर्द्धिक श्रावक महाधर रहता है । उसके पुत्र रत्नपालकी भार्या खेतलदेवीकी कुक्षिसे उत्पन्न सुभटपाल नामक सर्वलक्षणसम्पन्न पुत्र है, वही आपके पट्टका प्रभावक सूरि होगा'। देवीके इन वचनोंको सुन कर आचार्यश्री सोहिलवाड़ी नगरीमें पधारे । श्रावकोंने समारोह पूर्वक उनका स्वागत किया। एक वार आचार्यश्री श्रेष्ठिवर्य महाधरके यहां पधारे । श्रेष्ठिवर्य्यने भक्ति-गद्नाद् हो कर कहा-'भगवन् ! आपने मुझ पर बड़ी कृपा की, आपके शुभागमनसे मैं और मेरा गृह पावन हो गया, मेरे योग्य सेवा फरमावें!' आचार्यश्रीने कहा-'महानुभाव ! तुम्हारा धर्मप्रेम प्रशंसनीय है, भावी शासन-प्रभावनाके निमित्त तुम्हारे बालकोंमेंसे सुभटपालकी भिक्षा चाहता हूं। संसारमें अनेक प्राणी अनेक वार मनुष्य जन्म धारण करते हैं लेकिन साधनाभावसे अपनी प्रतिभाको विकशित करनेके पूर्व ही परलोकवासी हो जाते हैं । मानव जन्मकी सफलताके लिये त्याग ही सर्वोत्तम साधन है जिसके द्वारा धर्मका अधिकाधिक प्रचार और आत्माका कल्याण हो सकता है। आशा है तुम्हें मेरी याचना स्वीकृत होगी। इससे तुम्हारा यह बालक केवल तुम्हारे वंशको ही नहीं बल्कि सारे देश और धर्मको दीपाने वाला उज्वल रत्न होगा। १ इस प्रबन्धावलीकी एक पुरानी प्रति श्रीजिनविजयजीके पास है, उससे नकल करके जिनप्रभसूरि प्रबंधको हमने 'जैन सत्यप्रकाश' मासिकमें प्रकाशित किया। जिसका गुजराती अनुवाद पं० लालचंद भगवानदासने अपने 'जिनप्रभसूरि अने सुलतान महमद' नामक पुस्तकमें प्रकाशित किया है। प्रबन्धावलीकी एक और प्रति श्रीहरिसागरसूरिजीके पास भी देखी थी । वह प्रति सं० १६२२ आश्विन सुदि १५ को लिखी हुई थी। श्रीजिनविजयजी वाली प्रति भी लगभग इसके समकालीन लिखित प्रतीत होती है। २ 'खरतर गच्छ पट्टावली संग्रह में प्रकाशित १७ वीं शताब्दीकी पट्टावली नं.३ में लिखा है कि-इनका जन्म झुंझनूके तांबी श्रीमालके यहां हुआ था। ये उनके पांच पुत्रोंमेंसे तृतीय पुत्र थे। बीकानेरके जयचंदजीके भंडारकी पट्टावलीमें लिखा है कि बागढ़ देशके वड़ौदा प्रामके किसी श्रावकके छोटे पुत्र थे। इन्हें ११ वर्षकी छोटी उम्रमें आचार्य पद मिला। श्रीजिनप्रभ सूरिजीके जन्म संवत्का उल्लेख कहीं देखने में नहीं आया; पर सं० १३५२ में इन्होंने कातन्त्र विभ्रमवृत्तिकी स्चना की थी। उस समय इनकी आयु २०-२५ वर्षकी आवश्य होगी, अतः जन्म सं० १३२५ के लगभग होना संभव है। प्रबन्धावलीमें दीक्षा का समय सं० १३२६ लिखा है पर वह शंकित मालूम देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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