Book Title: Vidhi Marg Prapa
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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विधिप्रपा। ककरियविसेसा । तहा मोइय कुल्लर' चुप्पडिय मंडग मोइय सत्तुय दहिकरवय घोल सिहरणि तिलवट्टिय पगरणसंसट्ठ माइसराव एयाणि वासियाणि कप्पंति । वीसंदण भरोलग नंदिहलि नालिएर तिल्लमाइ गिहत्थेहिं अप्पणो कए कयं कप्पह । वीसंदणं तावियघयहंडियाए वेसणाइकयं । भरोलगाणि घयलोट्टकयमुट्ठियाणि ।
अन्नं पि 'खुडहडियदक्खा, दक्खावाणयं, अंबिलियावाणय-नालिएरवाणय-सुंठिमिरियमाइयं कप्पइ । तहा । 'दहिकयआसुरी, धूविय इडुरी 'मोक्कलिपमुहं तद्दिणे उवहणइ; बीयदिणे कप्पइ । छट्ठजोगे लग्गे संधूइय
तक्तीमणं भजियाइयं च कप्पइ; न आरओ कप्पइ । अववाएणं असहुस्स तिण्ह घाणाणोवरि जं निमंजणं चंउत्थघाणो गाहिम, अन्नघयाइअपक्खेवे पुखिल्लघयभरियतावियाए बीयघाणपक्कं पि ओगाहिम कप्पइ । जइ एगेण चेव पूएण ताविया पूरिज्जइ । उद्देसाइ, जइ साहुणीहिं सह तो चोलपट्टसंजुयाणं; अह
अनहा, तो अम्गोयरेणावि कप्पइ । कप्पइ साहुणीणं उद्देसाइ पडिक्कमणं वा काउं सया ओढियपरिहियाणं । " कप्पइ दुगाउयद्धाणं भिक्खायरियाए अडित्तए । कप्पइ बत्तीसं कवला आहारं आहारित्तए । कप्पंति तिन्नि पाउरणा पाउरित्तए । असहुस्स चत्वारि पंच जाव. समाही । कप्पइ दिया वा राओ वा आयावेउं । एवं सबो वि जो जंमि कप्पे विही उवहयाणुवहय-कप्पा-कप्पाइ जहा दिट्ठो गीयत्थेहिं, सो तहेव संकारहिएहिं वायणायरियाणुन्नाए कायद्यो; न समईए । अन्नहाकरणे बहुदोसप्पसंगाओ । तथाहि -
उम्मायं व लभिज्जा रोगायंकं व पाउणइ दीहं । केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ वा वि भंसिज्जा ॥१॥ इह लोए फलमेयं परलोए फलं न दिति विजाओ। आसायणा सुयस्स य कुवइ दीहं च संसारं ॥२॥ जं जह जिणेहिं भणियं केवलनाणेण तत्तओ नाउं।
तस्सन्नहाविहाणे अणाभंगो महापावो ॥३॥ एसो य उवहयाणुवहयविही भत्तपाणनिमित्तं आउत्तवाणयकाउस्सग्गे कए दद्वधो, न सामनेण । विगइवावडहत्थाइसणेण, तहा अंजियनयणाए पुछिए धोयलहिए वि जेहिं सा दिट्ठा तेसिं तीए हत्थेण न कप्पइ । जेसिं पुण न दिट्ठा ते धूयलहिए गेहंति, जइ दिट्ठपुव्वजोगीहिं न साहियं । अओ चेव परोप्परं अमुगा उवहय ति न साहियवं । एवं भत्तं पाणं च इमाए विहीए अडित्ता, इरियं पडिक्कमिय, गमणागमणमालोइत्ता, भत्तपाणं च जहागहियविहिणा तओ पारावित्ता, सन्निहियसाहुणो अणुण्णवित्ता, मुहपोत्तियाए " मुहं पडिलेहिता, उवउत्ता असुरसुरं अचवचवं अड्डेयमविलंबियं अपरिसाडिं अकसरकं अकुरुडुक्कभुरुडुक्कं इचाहविहिणा अरत्तदुट्ठा जेमंति । इत्थ य पमाय-अन्नाणाइणा अन्नहाणुट्ठाणे जोगवाहिणो पच्छित्तं, उवरिं तवाइयारपच्छित्ते भणीहामो।
एवं जोगविहाणं संखेवेणं तु तुम्हमक्खायं ।
जं च न इत्थ उ भणियं गीयायरणाइ तं नेयं ॥ .६४४. संपयं जो जत्थ तवोविही सो भण्णइ
आवस्सयंमि एगो सुयक्खंधो छच्च होति अज्झयणा।
दोण्णि दिणा सुयक्खंधे सवे वि य होति अट्ठदिणा ॥१॥ सवंगसुयक्खंधोद्देसाणुन्नासु नंदी हवइ । पढमदिणे सुयक्खंधस्स उद्देसो पढमज्झयणस्स यं उद्देससमुद्देसाणुण्णाओ। बीयाइदिणेसु बीयाइअज्झयणा । सत्तमदिणे सुयक्खंधस्स समुद्देसो, अट्ठमदिणे
1BO कुखुरि। 2 A खुडहडिय। 8A दहिकय°। 4 'पूरण'। 5 A भरडकं ।
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