Book Title: Vidhi Marg Prapa
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 177
________________ Jain Education International श्रीजिनप्रभसूरिकृताः स्तुतयः श्रीजिनप्रभसूरिकृताः स्तुतित्रोटकाः । - [१] - ते धनत्रयुकयत्थनरा, जे पणमहि सामिउं भत्तिभरा । फलवद्धिपृ द्वियपास जिणं, अससेणह नंदण भयहरणं ॥ १ ॥ वामाइविराणीउयरसरे, उप्पन्नउ सामिउ हंसपरे । तुम्हि बंद भवियहु भाउधरे, जिम दुत्तरु भउ संसार तरे ॥ २ ॥ इहि दून ममइ महच्छरियं, फलवद्धिपास जं अवयरियं । भवियण मणिच्छिय देउ सुहं, सो इक जीह वंनियइ कहं ॥ ३ ॥ झणझणण व्रणकहिं घग्घरियं, तद्दुनकटि नाकट्टि तिविल झणियं । लकुटारस नचहि इकमणी, भवियण आनंदिहिं जिणभवणी ॥ ४ ॥ - [२] - नियम फल रावणहं सुयं, दिवराय जु तित्थहं जत्त कियं । निच्चलवः १) णि वेचिउ निययधणं, विमलग्गिरि वंदिउ आदिजिणं ॥ १ ॥ दिवराय गरिसुनहु अंनु कली, जिणि दूसमसमहहिं माणु मली । सुवित्त खित्तिहि वरिउ धणं, उज्ञ्जिलगिरि पणमिउ नेमिजिणं ॥ २ ॥ विधि० १७ महिमंड हु संघ घणा, दिवराय सरिस नहु अंनु जणा । जिणि निरहं मज्झि सयं, देवालउ कड्डिउ जत्त कियं ॥ ३ ॥ फालिहाससिहरकर विमले, जसकलसु चडाविउ जेण कुले । मरगण या तोसिय धणवरिसे, अवयरिउ कंनु दिवरायमिसे ॥ ४ ॥ सिरिमजिणप्पभत्तिन्भरे, सुताणिहि मंनिउ विविह परे । पउमात्र पानिधि सयल जए, चिरु नंदउ देल्हिगु संघवए ॥ ५ ॥ ॥ त्रोटकाः ाः समाप्ताः ॥ For Private & Personal Use Only १२९ www.jainelibrary.org

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