Book Title: Vidhi Marg Prapa
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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१२०
विधिप्रपा।
अथ ग्रन्थप्रशस्तिः । बहुविहसामायारीओं दडु मा मोहमिंतु सीस त्ति । एसा सामायारी लिहिया नियगच्छपडिबद्धा ॥७॥ आगमआयरणाहिं जं किंचि विरुद्धमित्थ मे लिहियं । तं सोहिंतु सुयधरा अमच्छरा मह किवं काउं ॥८॥ जिणदत्तसूरिसंताणतिलयजिणसिंहसूरिसीसेण ।। गुत्ति-रस-किरियठाणप्पमिए विक्कमनिवइवरिसे ॥९॥ विजयदसमीइ एसा सिरिजिणपहरिणा समायारी । सपरोवयारहेउं समाणिया कोसलानयरे ॥१०॥ सिरिजिणवल्लह-जिणदत्तसूरि-जिणचंद-जिणवइमुणिंदा। सुगुरुजिणेसर-जिणसिंहसूरिणो मह पसीयंतु ॥ ११ ॥ वाइयसयलसुएणं वाणायरिएण अम्ह सीसेण । उदयाकरण गणिणा पढमायरिसे कया एसा ॥१२॥ जीए पसायाओं नरा 'सुकई सरसत्थवल्लहा हुंति। सा सरसई य पउमावई य मे दितु सुयरिद्धिं ॥ १३ ॥ ससि-सूरपईवा जाव भुवणभवणोदरं पभासेंति । एसा सामायारी सफलिजउ ताव सूरीहि ॥ १४ ॥ पच्चक्खरगणणाए पाएण कयं पमाणमेईए। चउहत्तरी समहिया पणतीससया सिलोयाणं ॥१५॥ विहिमग्गपवा नामं सामायारी इमा चिरं जयइ । पल्हायंती हिययं सिद्धिपुरीपंथियजणाणं ॥ १६ ॥
॥ अङ्कतोऽपि ग्रन्थानं ३५७४ ।।
॥ इति विधिमार्गप्रपा सामाचारी संपूर्णा ॥
1 सुकवयः सरसार्थवल्लभाः, पक्षे सुकृतिनः ईश्वरसार्थे वल्लभाः।
2 श्रुतं सुताच शिष्याः।
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