Book Title: Vidhi Marg Prapa
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 143
________________ ९५ आलोचनाग्रहणविधिप्रकरण । तह य परिग्गहमाणे खित्ताईणं तु भंगमालोए। दिसिमाणे आणयणं अन्नस्स य पेसणं जं वा ॥ ३२॥ सच्चित्तगं तु दवं पक्कासण-पहाण-पिवण-तंबोलं । राईभोयणभं पाणस्स य संवरं वियडे ॥ ३३ ॥ वियडे अणत्थविसयं तिल्लाईणं पमाणकरणं तु । पाओवएसं च तहा कंदप्पाई अवज्झाणं ॥ ३४ ॥ सामाइयफुसणाई दुप्पणिहाणाइ छिन्नणाईयं । दंडगचालणमविहाणकरणं सवं च आलोए ॥ ३५॥ देसावगासियंमी पुढ विक्कायाइ संवरं न करे। जयणाइ चीरधुवणे वितहायरणे य अइयारो ॥ ३६॥ पोसहकरणे थंडिल्ल वितहकरणं च अविहिसुयणं च । बंभे य भत्तविसए देसे सवे य पत्थणया ॥ ३७॥ अतिहिविभागो य कओ असुद्धभत्तेण साहुवग्गम्मि । सद्दहणं चिय न कयं सद्दहण-परूवणावि तहा ॥ ३८ ॥ साहू साहुणिवग्गो गिलाणओसहनिरुवणं न कयं । तिस्थयराणं भवणे अपमजणमाइ जं च कयं ॥ ३९ ॥ तवसंजमजुत्ताणं किचं उवहणाइ जं न कयं । दोसुब्भावण मच्छर तं पिय सवं समालोए ॥ ४०॥ तह अन्नधम्मियाणं तेसिं देवाण धम्मबुद्धीए । आरंभे य अजयणा धम्मस्स य दूसणा जाओ ॥४१॥ पायच्छित्तस्स ठाणाइं संखाइयाइं गोयमा। अणालोयंतो हु इक्किकं ससल्लं मरणं मरे ॥ ४२॥ आलोयणं अदाउं सइ अन्नमि य तहप्पणो दाउं। जे वि य करिंति सोहिं ते वि ससल्ला मुणेयवा ॥४३॥ चाउम्मासिय वरिसे दायबालोयणा व चउकन्ना। -दारं ३। संवेगभाविएणं सवं विहिणा कहेयवं ॥४४॥ जह बालो जंपतो कजमकजं च उजुयं भणइ । तं तह आलोइज्जा मायामयविप्पमुक्को उ ॥४५॥ छत्तीसगुणसमन्नागएण तेणवि अवस्स कायवा। परसक्खिया विसोही सुट्ठ विवहारकुसलेण ॥ ४६॥ जह सुकुसलो वि विज्जो अन्नस्स कहेइ अत्तणो वाहिं । एवं जाणतस्स वि सल्लुद्धरणं परसगासे ॥ ४७ ॥ आयरियाइ सगच्छे संभोइय-इयरगीय-पासत्थे । पच्छाकडसास्वी-देवयपडिमा-अरिहसिद्धे ॥४८॥ - दारं ४ । अप्पं पि भावसलं अणुद्वियं राय-वणियतणएहिं । जायं कडयविवागं किं पुण बहुयाई पावाई ॥ ४९॥ ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186