Book Title: Vidhi Marg Prapa
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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आलोचनाग्रहणविधिप्रकरण । तह य परिग्गहमाणे खित्ताईणं तु भंगमालोए। दिसिमाणे आणयणं अन्नस्स य पेसणं जं वा ॥ ३२॥ सच्चित्तगं तु दवं पक्कासण-पहाण-पिवण-तंबोलं । राईभोयणभं पाणस्स य संवरं वियडे ॥ ३३ ॥ वियडे अणत्थविसयं तिल्लाईणं पमाणकरणं तु । पाओवएसं च तहा कंदप्पाई अवज्झाणं ॥ ३४ ॥ सामाइयफुसणाई दुप्पणिहाणाइ छिन्नणाईयं । दंडगचालणमविहाणकरणं सवं च आलोए ॥ ३५॥ देसावगासियंमी पुढ विक्कायाइ संवरं न करे। जयणाइ चीरधुवणे वितहायरणे य अइयारो ॥ ३६॥ पोसहकरणे थंडिल्ल वितहकरणं च अविहिसुयणं च । बंभे य भत्तविसए देसे सवे य पत्थणया ॥ ३७॥ अतिहिविभागो य कओ असुद्धभत्तेण साहुवग्गम्मि । सद्दहणं चिय न कयं सद्दहण-परूवणावि तहा ॥ ३८ ॥ साहू साहुणिवग्गो गिलाणओसहनिरुवणं न कयं । तिस्थयराणं भवणे अपमजणमाइ जं च कयं ॥ ३९ ॥ तवसंजमजुत्ताणं किचं उवहणाइ जं न कयं । दोसुब्भावण मच्छर तं पिय सवं समालोए ॥ ४०॥ तह अन्नधम्मियाणं तेसिं देवाण धम्मबुद्धीए । आरंभे य अजयणा धम्मस्स य दूसणा जाओ ॥४१॥ पायच्छित्तस्स ठाणाइं संखाइयाइं गोयमा। अणालोयंतो हु इक्किकं ससल्लं मरणं मरे ॥ ४२॥ आलोयणं अदाउं सइ अन्नमि य तहप्पणो दाउं। जे वि य करिंति सोहिं ते वि ससल्ला मुणेयवा ॥४३॥ चाउम्मासिय वरिसे दायबालोयणा व चउकन्ना। -दारं ३। संवेगभाविएणं सवं विहिणा कहेयवं ॥४४॥ जह बालो जंपतो कजमकजं च उजुयं भणइ । तं तह आलोइज्जा मायामयविप्पमुक्को उ ॥४५॥ छत्तीसगुणसमन्नागएण तेणवि अवस्स कायवा। परसक्खिया विसोही सुट्ठ विवहारकुसलेण ॥ ४६॥ जह सुकुसलो वि विज्जो अन्नस्स कहेइ अत्तणो वाहिं । एवं जाणतस्स वि सल्लुद्धरणं परसगासे ॥ ४७ ॥ आयरियाइ सगच्छे संभोइय-इयरगीय-पासत्थे । पच्छाकडसास्वी-देवयपडिमा-अरिहसिद्धे ॥४८॥ - दारं ४ । अप्पं पि भावसलं अणुद्वियं राय-वणियतणएहिं । जायं कडयविवागं किं पुण बहुयाई पावाई ॥ ४९॥
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