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भूमिका
तटस्थ और तत्ववेत्ताओं का कहना है
पञ्चैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥
अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, त्याग और ब्रह्मचर्यं इन पांचों को समस्त धर्म वालों ने पवित्र माना है । इसका कारण यही है कि ये पांचों मनुष्यों के स्वाभाविक धर्म है । इन स्वाभाविक धर्मों में किसी भी दर्शनकार या साम्प्रदायिक लोगों की मत भिन्नता नहीं हो सकती। किसी भी देश, धर्म, जाति अथवा सम्प्रदाय का मनुष्य यह कदापि न कहेगा कि हिंसा करने में, झूठ बोलने में, चोरी करने में, परिग्रह में और ब्रह्मचर्य नहीं पालने में धर्म है । इन पाँचों में अहिंसा हमारा विषय है, जिसकी विवेचना इस पुस्तक में की गई है।
ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर विदित होता है कि जब तक इस देश पर अहिंसा प्रधान जातियों का राज्य रहा तब तक प्रजा में सुख शांति व्याप्त रही । सम्राट चन्द्रगुप्त एवं अशोक अहिंसा धर्म के प्रचारक थे । उनके काल में भारत कभी पराधीन नहीं हुआ। दक्षिण भारत के पल्लव चालुक्य वंश के प्रतापी राजा कुमारपाल अहिंसा धर्म के प्रचारक थे। इनके राज्यकाल में किसी भी विदेशी शक्ति को आक्रमण करने का साहस न हुआ । गुजरात और राजपूताने के इतिहास पर दृष्टि डालने से भली-भांति ज्ञात होता है कि इन देशों के स्वतंत्र और समुन्नत रहने के निमित्त अहिंसावादियों ने कितने बड़े-बड़े पराक्रम युक्त कार्य किये थे । गुजरात के इतिहास का वही भाग सबसे अधिक चमक रहा है जिसमें अहिंसक राजाओं व मं त्रयों के शासन का वर्णन है। गुजरात के इतिहास में दण्डनायक विमलशाह मंत्रा मुजाल, मंत्री शांतु, महामात्य उदायन और बाहद, वस्तुपाल और तेजपाल
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