________________
श२]
पाँचवाँ अध्याय खरविषाण आदिको भी होना चाहिए । असत् होनेसे खरविषाण यदि समवायिकारण नहीं हो सकता, तो असत्त्व तो द्रव्यमें भी विद्यमान है । तात्पर्य यह कि जिस कारण द्रव्य ही समवायिकारण होता है गुणकर्म आदि नहीं, उसी कारण यह मानना होगा कि द्रव्यका निजस्वरूप ही द्रव्यका आत्मा है और उसीसे द्रव्यव्यवहार होता है। यह स्वरूप अनादि-पारिणामिक है। द्रव्यसे बाहरका कोई द्रव्यत्व नामका सामान्यविशेष नहीं। यह समाधान भी उचित नहीं है कि-'द्रव्यमें एक विशेषता है जिसके कारण वही समवायिकारण होता है गुण कर्म आदि नहीं
और इसीलिए द्रव्यत्व उसीमें समवायसम्बन्धसे रहता है अन्यमें नहीं। वह विशेषता है 'आधार होना। द्रव्य ही गुण कर्म आदिका आधार होता है; क्योंकि जब द्रव्य स्वतः 'सत्' भी नहीं है तब वह कैसे किसीका आधार हो सकता है ? स्वतःसिद्ध घड़ा ही जलादिका आधार होता है।
४. जो वादी द्रव्यत्वके योगसे द्रव्य मानते हैं उनके यहाँ 'द्रव्य' यह व्यपदेश ही नहीं हो सकता । अभेद रूपसे व्यपदेश माननेपर जैसे यष्टिके साहचर्यसे पुरुषको 'यष्टि' कह देते हैं उस तरह तो 'द्रव्यत्व के सम्बन्धसे द्रव्यमें 'द्रव्यत्व' व्यपदेश होगा न कि द्रव्य । यह समाधान ठीक नहीं है कि 'द्रव्यत्वका वाचक द्रव्यत्व शब्दके समान 'द्रव्य' शब्द भी है अतः उसके सम्बन्धसे उसमें द्रव्यव्यवहार हो जायगा'; क्योंकि यदि द्रव्यत्वकी 'द्रव्य' यह संज्ञा स्वतः ही है तो द्रव्यको स्वतः मानने में क्या असन्तोष है ? उसकी भी 'द्रव्य' यह संज्ञा स्वतः मान लेनी चाहिए। यदि यह संज्ञा किसी अन्य पदार्थके सम्बन्धसे है तो वे ही दोष आते हैं। फिर यदि द्रव्यत्वके वाचक 'द्रव्यत्व और द्रव्य' ये दो शब्द हैं तो 'द्रव्य' व्यपदेशकी तरह 'द्रव्यत्व' व्यपदेश भी होना चाहिए। यदि 'यष्टिमान्' की तरह भेदमूलक व्यपदेश मानते हो तो द्रव्यमें 'द्रव्यत्ववान्' यह व्यपदेश होना चाहिए न कि 'द्रव्य' यह व्यपदेश । 'जिस प्रकार शुक्ल गुणके योगसे 'शुक्लः पटः' इस प्रयोगमें 'मतुप्' प्रत्ययका लोप होकर अभेदमूलक प्रयोग होता है उसी तरह यहाँ भी 'द्रव्य' यह प्रयोग हो जायगा' यह समाधान ठीक नहीं है, क्योंकि व्याकरण शास्त्रमें गुणवाची शब्दोंसे 'मतुप'का लोप स्वीकार किया गया है। शुक्ल आदि शब्द द्रव्यवाची और गुणवाची दोनों प्रकारके होते हैं, किन्तु 'द्रव्यत्व' शब्द गुणवाची नहीं है अतः इससे 'मतुप' की निवृत्ति नहीं हो सकती। इसी तरह 'त्व' की निवृत्ति भी व्याकरणशास्त्रसे सिद्ध नहीं है अतः 'द्रव्य' यह व्यपदेश नहीं हो सकता।
६५. द्रव्य शब्दसे भावार्थक 'त्व' प्रत्यय भी नहीं हो सकता; क्योंकि यदि भाव द्रव्यसे अभिन्न आत्मभूत अनादिपारिणामिक द्रव्यरूप ही है तो द्रव्यसे द्रव्यत्व भिन्न नहीं हुआ। ऐसी दशामें 'द्रव्यत्वके समवाय' की कल्पना समाप्त हो जाती है। यदि भिन्न है तो वह द्रव्यका भाव नहीं कहा जा सकता । किंच, जिस प्रकार द्रव्यका भाव द्रव्यत्व माना जाता है उसी तरह द्रव्यत्वका अन्य भाव यदि है तो 'द्रव्यत्वत्व' का प्रसंग होनेपर अनवस्था हो जायगी। यदि नहीं है तो स्वभावशून्य होनेसे अभाव हो जायगा। जिस प्रकार 'अवेर्मासम्' या 'अविकस्य मांसम्' दोनों विग्रहोंमें 'अवि' शब्दसे ही प्रत्यय होता है उस तरह 'द्रव्यस्य भावः' और 'द्रव्यत्वस्य भावः' दोनों विग्रहोंमें द्रव्य शब्दसे ही त्वप्रत्यय नहीं हो सकता क्योकि जिस प्रकार अवि और अविक शब्द एकार्थक हैं उस प्रकार द्रव्य और द्रव्यत्व दोनों शब्द एकार्थक नहीं हैं। यहाँ विग्रह भेदसे अर्थभेदका होना अवश्यम्भावी है।
६६-६. यदि द्रव्यत्व नित्य एक और निरवयव है तो वह अनेक पृथिवी आदिमें कैसे रह सकता है ? यदि रहता है तो रूपादिकी तरह अनेक ही हो जायगा। आकाश महापरिमाणवाला है अतः उसका एक साथ अनेक द्रव्योंको व्याप्त करना बन जाता है, परन्तु द्रव्यत्वनामक