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तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार
[६२ मुख आत्माके जो प्रदेश परिस्पन्द होता है वह मनोयोग है । वीर्यान्तरायका क्षयोपशम होनेपर
औदारिक आदि सात प्रकारकी कायवर्गणाओंमेंसे किसी एक वर्गणाके आलम्बनसे जो आत्माका प्रदेशपरिस्पन्द होता है वह काययोग है। केवलीके क्षयनिमित्तक योग माना जाता है। क्रियापरिणाम आत्माके कायवचन और मनोवर्गणाके आलम्बनसे होनेवाला प्रदेशपरिस्पन्द केवलीके होता है अतः उनके योग है अयोगकेवली और सिद्धोंके उक्त वर्गणा निमित्तक प्रदेशपरिस्पन्द न होनेसे योग नहीं है।
११. जैसे जाति कुल रूप संज्ञा और लक्षण आदिकी दृष्टि से अभिन्न भी देवदत्त बाह्यक्रियाओंको अपेक्षा लावक (काटनेवाला) पावक (पवित्र करनेवाला) आदि पर्यायभेदको प्राप्त करता है अतः वह एक भी है और अनेक भी, उसी तरह प्रतिनियत क्षायोपमिक शरीर आदि पर्यायकी दृष्टिसे योग तीन प्रकारका होकर भी अनादि पारिणामिक द्रव्यार्थनयसे एक प्रकारका भी है।
१२. योगका अर्थ समाधि और ध्यान भी होता है, यह आगे कहा जायगा। यहाँ उसकी विवक्षा नहीं है । यहाँ आस्रवका प्रकरण है अतः कियारूप योग लिया गया है।
१३. गर्गोंपर १००) रु० जुर्माना करो'की तरह 'कायवाङमनस्कर्म' में तीनोंकी सामुदायिक क्रियाको योग नहीं कहते किन्तु कर्म शब्दका अन्वय कायकर्म वाक्कर्म और मनस्कर्म तीनोंमें पृथक् पृथक कर लेना चाहिए जैसे कि 'देवदत्त जिनदत्त और गुरुदत्तको भोजन कराओ' इस वाक्यमें प्रत्येकको भोजनका सम्बन्ध विवक्षित होता है।
स आस्रवः ॥२॥ यह योग ही आस्रव है।
६१-३. 'कायवाङ्मनस्कर्मास्रवः' इतना लघुसूत्र बनानेमें योगशब्द आगममें प्रसिद्ध है उसका अर्थ अव्याख्यात ही रह जायगा । 'कामवाङ्मनस्कर्म योग आस्रवः' ऐसा एक सूत्र बनानेसे यद्यपि 'स' शब्दको ग्रहण नहीं करना पड़ता और एकयोग होनेसे लाघव हो सकता है परन्तु इससे सभी योगोंमें आस्रवत्वका प्रसंग प्राप्त होता है-केवलीके समुद्घात के समय होनेवाले दण्ड कपाट प्रतर और लोकपूर्ण योग भी आस्रव हो जायँगे । यद्यपि इस कालमें सूक्ष्मयोग मानकर तन्निमित्तक अल्पबंध माना जाता है पर इससे तो उनमें साधारण योगत्व और बहुबन्धका प्रसंग प्राप्त होता है । वस्तुतः मुख्य योग तो वर्गणानिमित्तक प्रदेशपरिस्पन्द रूप है और वही आस्रव है, पर केवलिसमुद्भात वर्गणालम्बन नहीं है अतः उसे आस्रव नहीं मानते । दण्डादिव्यापार कालमें अनास्रव होनेसे दण्डादियोगनिमित्तक बन्ध भी नहीं होता। हाँ, उस समय जो कायवर्गणालम्बन सूक्ष्म काययोग होता है उसीसे बन्ध होता है। यदि एकसूत्र बनाया जाता तो सभी योग आस्रव बन जाते । भिन्न सूत्र बनानेसे यह स्पष्ट अर्थ निकल आता है कि--- जो काय वचन मनोवर्गणालम्बन प्रदेश परिस्पन्द है वही योग और आस्रव है, अन्य नहीं। अर्थात्.ऐसा भी योग है जो आस्रव नहीं होता। जैसे केवलीके इन्द्रियाँ विद्यमान रहती हैं, पर तत्पूर्वक व्यापार नहीं होनेसे इन्द्रियजकर्मबन्ध नहीं होता उसी तरह दण्डादि योगके रहनेपर भी कर्मबन्ध नहीं होता अतः इसे आस्रव नहीं कहते।
४-५. जैसे जलागमन द्वारसे जल आता है उसी तरह योगप्रणालीसे आत्मामें कर्म आते हैं अतः इस योगको आस्रव कहते हैं । जैसे गोला कपड़ा वायुके द्वारा लाई गई धूलिको चारों ओरसे चिपटा लेता है उसी तरह कषायरूपी जलसे गीला आत्मा योगके द्वारा लाई गई
करता है। अथवा. जैसे गरम लोहपिण्ड यदि पानी डाला जाय तो वह चारों तरफसे पानीको खींचता है उसी तरह कषायसे सन्तप्त जीव योगसे लाये गये कर्मोको सब ओरसे ग्रहण करता है।