Book Title: Tattvarth Varttikam Part 02
Author(s): Akalankadev, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 357
________________ ९/६] नयाँ अध्याय गुप्ति आदिकी प्रतिष्ठाके लिए किये जाते हैं उसी तरह उत्तम क्षमा आदि दस प्रकारके धर्म की भावना भी गुप्ति आदिके परिपालनके लिए ही है, अतः इनका पृथक उपदेश किया है। २६. 'ये क्षमा आदि धर्म किसी दृष्टप्रयोजनकी प्राप्तिके लिए धारण नहीं किये जाते और इसलिए ये संवरके कारण होते हैं। इस विशेषताकी सूचना देनेके लिए उत्तम विशेषण दिया जाता है-उत्तमक्षमा उत्तम मार्दव आदि । २७. इन उत्तमक्षमा आदि धर्मोमें स्वगुण प्राप्ति तथा प्रतिपक्षी दोषकी निवृत्तिकी भावना की जाती है अतः ये संवरहेतु हैं। व्रतशीलका रक्षण इहलोक और परलोकमें दुःख न होना और समस्त जगत्में सम्मान सत्कार होना आदि क्षमाके गुण हैं। धर्म अर्थ काम और मोक्षका नाश करना आदि क्रोधके दोष हैं। यह विचार कर क्षमा धारण करनी चाहिए अपने ऊपर क्रोध करता है और गाली देता है तो सोचना चाहिये कि ये दोष मुझमें विद्यमान ही हैं, यह क्या मिथ्या कहता है ? यदि वे दोष अपने मनमें न हों तो सोचना चाहिये कि यह विचारा अज्ञानसे ऐसा कहता है, अतः क्षमा ही करनी चाहिये । जैसे कोई बालक यदि परोक्ष में गाली देता है तो क्षमा ही करनी चाहिये । सोचना चाहिये कि बालकोंका यह स्वभाव ही है। भाग्यवश हमें पीठ पीछे ही गाली देता है सामने तो नहीं। बालक तो मुँह पर गाली देते हैं अतः लाभ ही है। सामने गाली देनेपर सोचना चाहिये कि गाली ही तो दी है मारा तो नहीं है। घाल तो मारते भी हैं । मारनेपर सोचना चाहिये कि इसने मारा ही तो है प्राण तो नहीं ले लिये। बाल तो प्राण भी ले लेते हैं। प्राण ले लेने पर भी क्षमा ही करना चाहिये । सोचना चाहिये कि इसने प्राण ही लिये हैं धर्म तो नहीं ले लिया। इस तरह बालस्वभावके चिन्तन द्वारा चित्तमें क्षमाभावको पुष्ट करना चाहिये । सोचना चाहिये कि हमने ही ऐसा खोटा कर्म बाँधा था जिसके फलस्वरूप गाली सुननी पड़ रही है, यह तो इसमें निमित्तमात्र है। निरभिमानी और मार्दवगुणयुक्त व्यक्तिपर गुरुओंका अनुग्रह होता है । साधुजन भी उसे साधु मानते हैं । गुरुके अनुग्रहसे सम्यग्ज्ञान आदिकी प्राप्ति होती है और उससे स्वर्गादिसुख मिलते हैं । मलिन मनमें व्रतशील आदि नहीं ठहरते साधुजन उसे छोड़ देते हैं। तात्पर्य यह कि अहंकार समस्त विपदाओंकी जड़ है। सरल हृदय गुणोंका आवास है, वे मायाचारसे डरते हैं। मायाचारीकी निन्धगति होती है । शुचि आचारवाले निर्लोभ व्यक्तिका इस लोकमें सन्मान होता है। विश्वास आदि गुण उसमें रहते हैं । लोभीके हृदय में गुण नहीं रहते । वह इस लोक और परलोकमें अनेक आपत्तियों और दुर्गतिको प्राप्त होता है। सभी गुणसम्पदाएँ सत्यवक्तामें प्रतिष्ठित होती हैं । झूठेका बन्धुजन भी तिरस्कार करते हैं। उसके कोई मित्र नहीं रहते। जिह्वाछेदन सर्वस्वहरण आदि दण्ड उसे भुगतने पड़ते हैं । संयम आत्माका हितकारी है । संयमी पुरुषकी यहीं पूजा होती है, परलोककी तो बात ही क्या ? असंयमी निरन्तर हिंसा आदि व्यापारोंमें लिप्त होनेसे अशुभ कर्मका संचय करता है। तपसे सभी अर्थों की सिद्धि होती है। इससे ऋद्धियोंकी प्राप्ति होती है। तपस्वियोंको चरणरजसे पवित्र स्थान ही तीर्थ बने हैं। जिसके तप नहीं वह तिनकेसे भी लघु है। उसे सब गुण छोड़ देते हैं, वह संसारसे मुक्त नहीं हो सकता । परिग्रहका त्याग करना पुरुषके हितके लिए है । जैसे जैसे वह परिग्रहसे रहित होता है वैसे वैसे उसके खेदके कारण हटते जाते हैं । खेदरहित मनमें उपयोगकी एकाग्रता और पुण्य संचय होता है । परिग्रहकी आशा बड़ी बलवती है वह समस्त दोषोंकी उत्पत्तिका स्थान है । जैसे पानीसे समुद्रका बडवानल शान्त नहीं होता उसी तरह परिग्रहसे आशासमुद्रकी तृप्ति नहीं हो सकती । यह आशा का गडढा दुष्पूर है। इसका भरना बहुत कठिन है। प्रतिदिन जो उसमें डाला जाता है वही समा कर मुँह बाने लगता है । शरीर आदिसे ममत्वशून्य व्यक्ति परम सन्तोषको प्राप्त होता है। शरीरादिमें राग करने वालेके सदा संसार परिभ्रमण सुनिश्चित है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456