Book Title: Tattvarth Varttikam Part 02
Author(s): Akalankadev, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 386
________________ ७९८ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [९४७ सहित मूल और उत्तरगुणोंमें परिपूर्ण कभी-कभी उत्तरगुणकी विराधना करनेवाले प्रतिसेवनाकुशील हैं। ग्रीष्मकालमें जंघाप्रक्षालन आदिका सेवन करनेकी इच्छा होनेसे जिनके संज्वलनकषाय जगती है और अन्य कषायें वशमें हो चुकी हैं वे कषायकुशील हैं। ४. जैसे पामीमें खींची गई रेखा शीघ्र ही विलीन हो जाती है उसी तरह जिनके कर्मोका उदय अत्यन्त अनभिव्यक्त है और जिनके अन्तर्मुहूर्तमें ही केवलज्ञान और दर्शन प्रकट होनेवाले हैं, वे निम्रन्थ हैं। ५. ज्ञानावरण आदि धातिया कोंके क्षयसे जिनके केवलज्ञानादि अतिशय प्रकट हुए हैं वे शीलके परिपूर्णस्वामी कृतकृत्य सयोगकेवली स्नातक हैं। ६-१२. प्रश्न-जैसे गृहस्थ चारित्रभेदसे निम्रन्थ नहीं कहा जाता उसी तरह पुलाक आदिको भी प्रकृष्ट अप्रकृष्ट मध्यम आदि चारित्रभेद होनेपर भी निर्ग्रन्थ नहीं कहना चाहिये ? उत्तर-जैसे चारित्र अध्ययन आदिका भेद होनेपर भी सभी ब्राह्मणोंमें जातिकी दृष्टिसे प्राह्मण शब्दका प्रयोग समानरूपसे होता है उसी तरह पुलाक आदिमें भी निर्ग्रन्थशब्दका प्रयोग हो जाता है । संग्रह और व्यवहार नयकी अपेक्षा गुणहीनों में भी उस शब्दका प्रयोग सर्वसंग्रहार्थ कर लिया जाता है । भूषा वेष और आयुधसे रहित निर्मन्थरूप और शुद्ध सम्यग्दर्शन ये सभी पुलाक आदिमें समान है अतः इनमें निम्रन्थ शब्दका प्रयोग सकारण है। हम निम्रन्थ रूपको प्रमाण मानते हैं, अतः भग्नबत निम्रन्थमें निर्ग्रन्थशब्दका प्रयोग करके भी श्रावकमें उसका प्रयोग नहीं कर सकते; क्योंकि उसमें निम्रन्थरूप नहीं है। यह आशंका भी नहीं करनी चाहिये कि-'जिस किसी मिथ्यादृष्टि नंगेमें निर्ग्रन्थ शब्दका प्रयोग होने लगेगा'; क्योंकि उसमें सम्यग्दर्शन नहीं पाया जाता । जहाँ सम्यग्दर्शनसहित निर्गन्थरूप है वही निम्रन्थ है। चारित्रगुणका क्रमविकास और क्रमप्रकर्ष दिखानेके लिए इन पुलाकादि भेदोंकी चरचा की है। पुलाकादिमें विशेषतासंयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिङ्गलेश्योपपादस्थानविकल्पतः साध्याः ॥४७॥ ६१-३. तस प्रत्यय अन्यसे भी हो जाता है, भवति आदिके योगके बिना भी उसका प्रयोग सिद्ध है। जैसे, विसेवक शब्दमें षत्व नहीं हुआ उसी तरह क्रियान्तरका सम्बन्ध होनेसे प्रतिसेवनामें षत्व नहीं हुआ है। ४. संयमादि आठ अनुयोगोंसे पुलाक आदिमें विशेषता है। संयम-पुलाक वकुश और प्रतिसेवनाकुशील सामायिक और छेदोपस्थापना इन दो संयमों में होते हैं। कषायकुशील इनके साथ ही साथ परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्परायमें भी होते हैं। निर्ग्रन्थ और स्नातक एक यथाख्यात संयममें ही होते हैं। ___ श्रुतकी दृष्टिसे-पुलाक वकुश और प्रतिसेवनाकुशील अभिन्नाक्षर दशपूर्वके धारक होते हैं। कषायकु शील और निम्रन्थ चौदहपूर्व के धारी होते हैं । जघन्यसे पुलाकका श्रुत आचारवस्तुके ज्ञानतक सीमित है। वकुश कुशील और निर्ग्रन्थोंका जघन्यश्रुत आठ प्रवचन मातृकाओं (पाँच समिति और तीन गुप्ति) के ज्ञान तक है। स्नातक केवली हैं, अतः वे श्रुतातीत हैं। प्रतिसेवना-पुलाकके पाँच मूलगुण और रात्रिभोजनविरतिमेंसे किसी एककी परके दबाबसे विरोधना हो जाती है । वकुश दो प्रकारके हैं-उपकरण वकुश और शरीर वकुश । उपकरणोंमें जिनका चित्त आसक्त है, जो विचित्र परिग्रहयुक्त हैं, जो सुन्दर सजे हुए उपकरणोंकी आकांक्षा करते हैं तथा इन संस्कारोंके प्रतीकारकी सेवा करनेवाले भिक्षु उपकरणवकुश हैं। शरीरसंस्कारसेवी शरीरवकुश हैं। प्रतिसेवनाकुशीलके मूलगुणोंमें तो विराधना

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