Book Title: Tattvarth Varttikam Part 02
Author(s): Akalankadev, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 392
________________ ८०४ तत्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [१०८९ गमन करता है। जीवकी दण्डकी तरह अनियतगति नहीं हो सकता; क्योंकि जीवोंको ऊर्ध्वगौरव धर्मवाला बताया है । अतः वे ऊपर ही जाते हैं। ६५. जैसे ऊपरके छिलकेके हटते ही एरंडबीज छिटक कर ऊपरको जाता है उसी तरह मनुष्यादिभवोंको प्राप्त करानेवाली गति आदि नाम कर्मके बन्धनोंके हटते ही मुक्तकी स्वाभाविक ऊर्ध्वगति होती है। जैसे तिरछी बहनेवाली वायुके अभावमें दीपशिखा स्वभावसे ऊपरको जलती है उसी तरह मुक्तात्मा भी नाना गतिविकारके कारण कर्मके हटते ही ऊर्ध्वगतिस्वभावसे ऊपरको ही जाता है। ७. परस्परप्रवेश होकर एकमेक हो जाना बन्ध है और परस्पर प्राप्तिमात्र संग है, अतः दोनोंमें भेद है । अतः क्रियाके कारण पुण्य-पापके हट जानेपर मुक्तके स्वगतिपरिणामसे ऊर्ध्वगति होती है। ६८. अलाबू-तूंबड़ी वायु के कारण ऊपर नहीं आती; क्योंकि वायुका तिरछा चलनेका स्वभाव है अतः उसे तिरछा चलना चाहिये था। अतः मिट्टीके लेपके अभावमें हो ऊर्ध्वगमन मानकर अलाबूका दृष्टान्त संगत है। ६९-१०. प्रश्न-सिद्ध शिलापर पहुँचनेके बाद चूंकि मुक्त जीवमें ऊर्ध्वगमन नहीं होता अतः उष्ण स्वभावके अभावमें अनिके अभावकी तरह मुक्त जीवका भी अभाव हो जाना चाहिये ? उत्तर--'मुक्तका ऊर्ध्व ही गमन होता है तिरछा आदि गमन नहीं यह स्वभाव है न कि ऊर्ध्वगमन करते ही रहना। जैसे अग्नि कभी ऊर्ध्वज्वलन नहीं करती तब भी अबिनी रहती है उसी तरह मुक्तमें भी लक्ष्य प्राप्ति के बाद ऊर्ध्वगमन न होनेपर भी अभाव नहीं होता है। ____अथवा, 'अग्निके तो तिर्यक् पवनके संयोगसे ऊर्ध्वज्वलनका अभावमाना जा सकता है पर मुक्त आत्माके आगे गमन न करने में क्या कारण है ?' इस शंकाके समाधानके लिए सूत्र कहते हैं धर्मास्तिकायाभावात् ॥८॥ लोकाकाशसे आगे गति-उपग्रह करनेमें कारणभूत धर्मास्तिकाय नहीं हैं । अतः आगे गति नहीं होती। आगे धर्मद्रव्यका सद्भाव माननेपर लोक-अलोकविभागका अभाव ही हो जायगा। सिद्धोंमें भेदक्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधित ज्ञानावगाहनान्तर संख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ॥९॥ १. इन क्षेत्र आदि बारह अनुयोगोंको प्रत्युत्पन्न और अतीतकी अपेक्षा लगाकर सिद्धोंमें भेद करना चाहिये। २. प्रत्युत्पन्ननयसे सिद्धिक्षेत्र स्वप्रदेश या आकाशप्रदेशमें सिद्धि होती है । भूतनयकी अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियों और संहरणकी अपेक्षा मनुष्यलोकमें सिद्धि होती है । ऋजुसूत्र तथा शब्द नय प्रत्युत्पन्नग्राही हैं और शेष नय उभयको ग्रहण करते हैं। ३. प्रत्युत्पन्नकी अपेक्षा एक समयमें ही सिद्ध होता है । भूतप्रज्ञापननयसे जन्मकी अपेक्षा सामान्यतया उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीमें उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है। विशेषरूपसे अवसर्पिणीके सुषम-सुषमाके अन्तभाग और दुषमसुषमामें उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है । दुषमसुषमामें उत्पन्न दुषमामें सिद्ध हो सकता है पर दुषमामें उत्पन्न हुआ कभी सिद्ध नहीं हो सकता। संहरणकी दृष्टिसे सभी कालोंमें सिद्ध हो सकता है।

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