Book Title: Tattvarth Varttikam Part 02
Author(s): Akalankadev, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 393
________________ १०९] दसवाँ अध्याय ४. प्रत्युत्पन्न दृष्टिसे सिद्धगतिमें सिद्धि होती है और भूतनयकी दृष्टिसे अनन्तर गतिकी अपेक्षा केवल मनुष्यगतिसे सिद्धि होती है और एकान्तरगतिकी अपेक्षा चारों गतियोंसे सिद्धि होती है अर्थात् किसी भी गतिसे मनुष्य होकर सिद्ध हो सकता है। ५. वर्तमान नयकी अपेक्षा अवेद अवस्थामें सिद्धि होती है । अतीतकी अपेक्षा साधारण रूपसे तीनों वेदोंसे सिद्धि होती है-भाव वेदकी अपेक्षा द्रव्यवेदकी अपेक्षा नहीं। द्रव्यवेदकी अपेक्षा तो पुल्लिंगसे ही सिद्धि होती है । अथवा लिंग दो प्रकारका है एक सग्रंथ लिंग और दूसरा निम्रन्थ लिंग । प्रत्युत्पन्ननयकी अपेक्षा निम्रन्थ लिंगसे सिद्धि होती है और भूतपूर्वनयकी अपेक्षा विकल्प है। ६. तीर्थ सिद्धि दो प्रकारकी होती है-एक तीर्थंकर रूपसे तथा दूसरी तीर्थकर भिन्न रूप में । वे दोनों तीर्थंकरकी मौजूदगी में भी सिद्ध होते हैं और गैरमौजूदगीमें भी। ६७. प्रत्युत्पन्ननयकी दृष्टिसे न तो चारित्रसे सिद्धि होती है और न अचारित्रसे किन्तु निर्विकल्पभावसे सिद्धि होती है। भूतपूर्वनयमें अनन्तरदृष्टिसे यथाख्यात चारित्रसे सिद्धि होती है। व्यवधानसे सामायिक छेदोपस्थापना सूक्ष्मसाम्पराय इन सहित चारसे या परिहारविशुद्धि सहित पाँचसे सिद्धि होती है। ६८. कुछ प्रत्येकबुद्ध सिद्ध होते हैं जो परोपदेशके बिना स्वशक्तिसे ही ज्ञानातिशय - प्राप्त करते हैं। कुछ बोधितबुद्ध होते हैं जो परोपदेशपूर्वक ज्ञान प्राप्त करते हैं। ६९ प्रत्युत्पन्ननयकी अपेक्षा एक केवलज्ञानसे सिद्धि होती है। भूतपूर्व गतिसे मति और श्रुत दो से मति श्रुत और अवधि या मति श्रुत और मनःपर्यय इन तीनसे अथवा मति श्रुत अवधि और मनःपर्यय इन चार शानोंसे सिद्धि होती है। १०. अत्मप्रदेशका व्यापित्व अर्थात् अवगाहन शरीरपरिमाण है । उत्कृष्ट अवगाहना ५२५ धनुष और जघन्य ३॥ अरनि प्रमाण है। मध्यमें अनेक भेद होते हैं। भूतपूर्वनयसे इन अवगाहनाओं में सिद्धि होती है और प्रत्युत्पन्ननयकी अपेक्षा कुछ कम इन्हीं अवगाहनाओं में । ६११-१२. एक सिद्धसे दूसरे सिद्ध होनेके मध्यका काल अन्तर है। अनन्तर जघन्यसे दो समय तक और उत्कृष्टसे आठ समय तक सिद्ध होते रहते हैं। अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कृष्टसे छह मास है। ६ १३. एक समयमें जघन्यसे एक और उत्कृष्टसे १०८ तक सिद्ध होते हैं । ६१४. क्षेत्रादि अनुयोगोंके भेदसे भिन्नोंका परस्पर संख्यातारतम्य अल्पबहुत्व है। प्रत्युत्पन्ननयकी अपेक्षा सिद्धिक्षेत्रमें सिद्धि होती है अतः अल्पबहुत्व नहीं है । भूतपूर्वनयकी अपेक्षा क्षेत्रसिद्ध दो प्रकारके हैं-एक जन्मकी दृष्टिसे और दूसरे संहरणकी दृष्टिसे । संहरणसिद्ध कम हैं, जन्मसिद्ध संख्यातगुणे हैं। संहरण दो प्रकारका है-एक स्वकृत और दूसरा परकृत । देवों द्वारा या चारण विद्याधरोंसे किया गया संहरण परकृत है और चारण विद्याधरोंका स्वयं संहरण स्वकृत है। क्षेत्र-कर्मभूमि और अकर्मभूमि समुद्र-द्वीप ऊपर नीचे तिरछे आदि अनेक प्रकारके हैं। उनमें ऊर्ध्वलोकसिद्ध सबसे कम हैं। अधोलोकसिद्ध संख्येयगुणें हैं । तिर्यग्लोकसिद्ध संख्येयगुणें हैं । लवणोदसिद्ध सबसे कम हैं। कालोदसिद्ध संख्येयगुणें हैं। जम्बूद्वीपसिद्ध संख्येयगुणें हैं । धातकीखण्डसिद्ध संख्येयगुणें हैं । पुष्करद्वीपार्धसिद्ध संख्येयगुणें हैं। काल विभाग तीन प्रकारका है-उत्सर्पिणी अवसर्पिणी और अनुत्सर्पिणी-अनवसर्पिणी। उत्सर्पिणीसिद्ध सबसे कम हैं, अवसर्पिणीसिद्ध विशेषाधिक हैं, अनुत्सर्पिणी-अनवसर्पिणीसिद्ध संख्येयगुणें हैं। प्रत्युत्पन्ननयकी अपेक्षा एक समयमें सिद्ध होते हैं अतः अल्पबहुत्व नहीं हैं। गतिकी दृष्टिसे प्रत्युत्पन्ननयसे सिद्धगतिमें सिद्धि होती है अतः अल्पबहुत्व नहीं है। भूतविषयकनयकी अपेक्षा अनन्तरगति मनुष्यगतिमें सिद्धि होती है अतः अल्पबहुस्व नहीं है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456