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८०८ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार
[१०९ सिद्धोंका अव्यय सुख संसारके विषयोंसे अतीत और परम अव्याबाध होता है। 'अशरीरी नष्ट-अष्टकर्मा मुक्त जीवके कैसे क्या सुख होता होगा ? इस प्रश्नका समाधान सुनिये-लोकमें सुख शब्दका प्रयोग विषयवेदनाका अभाव विपाक कर्मफल और मोक्ष इन चार अर्थों में देखा गया है । 'अग्नि सुखकर है वायु सुखकारी है' इत्यादिमें सुख शब्द विषयार्थक है। रोगादि दुःखोंके अभावमें भी पुरुष 'मैं सुखी हूँ' यह समझता है। पुण्य कर्मके विपाकसे इष्ट इन्द्रिय विषयोंसे सुखानुभूति होती है और कर्म और क्लेश के विमोक्षसे मोक्षका अनुपम सुख प्राप्त होता है ॥२३-२७॥
कोई इस सुखको सुषुप्त अवस्थाके समान मानते हैं, पर यह ठीक नहीं है। क्योंकि उसमें सुखानुभव रूप क्रिया होती रहती है और सुषुप्त अवस्था तो दर्शनावरणी कर्मके उदयसे श्रम क्लम, भय, व्याधि, काम आदि निमित्तोंसे उत्पन्न होती है और मोहविकाररूप है ।।२८-२९।।
समस्त संसारमें ऐसा कोई पदार्थ ही नहीं है जिससे उस सुखकी उपमा दी जाय । वह परम निरुपम है ॥३०॥
लिंग और प्रसिद्धिसे अनुमान और उपमान उत्पन्न होते हैं, पर यह सुख न तो लिङ्गसे अनुमित होता है और न किसी प्रसिद्ध पदार्थसे उपमित होता है, अतः यह निरुपम है।।३०-३१।।
वह भगवान् अर्हन्तके प्रत्यक्ष है और हम छद्मस्थजन उन्हींके वचनप्रामाण्यसे उसके अस्तित्वको जानते हैं । यहाँ परीक्षाका अवकाश नहीं है ॥३२॥
इस तरह उत्तम पुरुषोंने तत्त्वार्थ सूत्रोंका भाष्य कहा है । इसमें तर्क है और न्याय तथा आगमसे निर्णय है ॥३३॥
दसवाँ अध्याय समाप्त