Book Title: Tattvarth Varttikam Part 02
Author(s): Akalankadev, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 384
________________ तत्त्वार्थवार्तिक- हिन्दी-सार [ ९२४५ शरीरक्रियाओंका निग्रह कर मन्द श्वासोच्छ्वास लेता हुआ निश्चित लक्ष्य और क्षमाशील हो बाह्य आभ्यन्तर द्रव्य पर्यायोंका ध्यान करता हुआ वितर्क की सामर्थ्ययुक्त हो अर्थ और व्यंजन तथा मन वचन कायकी पृथक-पृथक संक्रन्ति करता है । वह असीम बल और उत्साहसे मनको सबल बनाकर अव्यवस्थित और भौथरे शस्त्रसे वृक्षको छेदनेकी तरह मोह प्रकृतियोंका उपशम या क्षय करनेवाला पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यान ध्याता है। फिर शक्तिकी कमी से योग से योगान्तर व्यंजनसे व्यंजनान्तर और अर्थ से अर्थान्तरको प्राप्त कर मोहरजका विधूनन कर ध्यान से निवृत्त होता है । यह पृथक्त्ववितर्क वीचार ध्यान है । ७९६ इस विधि से मोहनीयका समूलतल उच्छेद करनेकी तीव्र इच्छासे अनन्तगुण विशुद्ध योग सहित हो ज्ञानावरण सहायभूत बहुत-सी मोहनीय प्रकृतियों के बन्धको रोकता हुआ उनकी स्थितिका ह्रास और क्षय करके श्रुतज्ञानोपयोगवाला वह अर्थ व्यंजन और योगसंक्रान्तिको रोककर एकाम निश्चल चित्त हो वैडूर्यमणिकी तरह निर्लेप क्षीणकषाय हो ध्यान धारण कर फिर वाप नहीं होता । यह एकत्वत्रितर्क ध्यान है । इस तरह एकत्ववितर्क शुक्लध्यानाग्निसे जिसने घातिकर्मरूपी ईंधनको जला दिया है, प्रज्वलित केवलज्ञानसूर्य जिसका प्रकाशमान है, मेघसमूहको भेदकर निकले हुए किरणों से सर्वतः भासमान भगवान् तीर्थङ्कर या अन्यकेवली लोकेश्वरों द्वारा अभिवन्दनीय अर्चनीय और अभिगमनीय होते हैं । वे कुछ कम पूर्वकोटिकालतक उपदेश देते रहते हैं । जब उनकी आयु अन्तमुहूर्त शेष रह जाती है और वेदनीय नाम और गोत्रकी स्थिति भी उतनी ही रहती है तब सभी वचन और मनोयोग तथा बादरकाययोगको छोड़कर सूक्ष्मयोगका आलम्बन ले सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान प्रारम्भ करते हैं। जब आयु अन्तर्मुहूर्त हो तथा वेदनीय नाम और गोत्रकी स्थिति अधिक हो तब विशिष्ट आत्मोपयोगवाली परमसामायिकपरिणत महासंवररूप और जल्दी कमका परिपाक करनेवाली समुद्धातक्रिया की जाती है । वह इस क्रियासे शेष कर्मरेणुओंका परिपाक करनेके लिये चार समयोंमें दण्ड कपाट प्रतर और लोकपूर्ण अवस्था में आत्मप्रदेशों को पहुँचाकर फिर क्रमशः चार ही समयों में उन प्रदेशोंका संहरण कर चारों कर्मों की स्थिति समान कर लेता है । इस दशा में वह फिर अपने शरीरपरिमाण हो जाता है । इस तरह सूक्ष्म काययोगसे सूक्ष्म- क्रियाप्रतिपाति ध्यान ध्याया जाता है । इसके बाद समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति ध्यान प्रारम्भ होता है। श्वासोच्छ्वास आदि समस्त काय वचन और मन सम्बन्धी व्यापारोंका निरोध होनेसे यह ध्यान समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति कहलाता है । इस ध्यान में समस्त आस्रव-बन्धका निरोध होकर समस्त कर्मोंके नष्ट करनेकी सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है। इसके धारक अयोगकेवलीके संसार दुःखजालके उच्छेदक साक्षात् मोक्षमार्ग के कारण सम्पूर्ण यथाख्यातचारित्र ज्ञान और दर्शन आदि प्राप्त हो जाते हैं । वे ध्यानाग्निसे समस्त मल कलंक कर्मबन्धों को जलाकर निर्मल और किट्टरहित सुवर्णकी तरह परिपूर्ण स्वरूपलाभ करके निर्वाणको प्राप्त हो जाते हैं । इस तरह यह तप संवर और निर्जरा दोनों का कारण होता है । निर्जराकी विशेषता सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोह क्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ॥ ४५ ॥ सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करनेवाले, दर्शन मोहका क्षय करनेवाले, चारित्रमोहके 'उपशमक, उपशान्तमोह, चारित्रमोहके क्षपक, क्षीणमोह तथा केवली जिन ये क्रमशः उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरावाले होते हैं।

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