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नवाँ अध्याय
परे केवलिनः ॥ ३८॥
९१. केवली - अचिन्त्यविभूतिरूप केवलज्ञानसाम्राज्यके स्वामी सयोगी और अयोगी दोनों केवलियोंके अन्तिम दो शुक्लध्यान होते हैं छद्मस्थोंके नहीं ।
पृथक्त्वैकत्ववितर्कस्सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवर्तीनि ॥ ३९ ॥
पृथक्त्ववितर्क एकत्ववितर्क सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति ये चार शुक्लध्यान हैं।
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त्र्येकयोगकाययोगायोगानाम् ॥४०॥
९१ - २. तीनों योगवालोंके पृथक्त्ववितर्क, किसी एक योगवालेके एकत्ववितर्क, काययोगवा लेके सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और अयोगीके व्युपरत क्रियानिवर्ति ध्यान होता है । एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥४१॥
११- ३. आदिके दो शुक्लध्यान श्रुतकेवलीके द्वारा आरम्भ किये जाते हैं अतः एकाश्रय हैं तथा वितर्क और वीचारसे युक्त हैं ।
अवीचारं द्वितीयम् ॥४२॥
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दूसरा शुक्रुध्यान सवितर्क और अविचार है ।
वितर्कः श्रुतम् ॥४३॥
विशेष प्रकार से तर्कणा करना वितर्क है । वितर्क अर्थात् श्रुतज्ञान |
वीचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः ॥ ४४ ॥
अर्थ - ध्येय द्रव्य या पर्याय, व्यञ्जन - शब्द, और योग - मन वचन कायके परिवर्तन को वीचार कहते हैं । द्रव्यको छोड़कर पर्यायको और पर्यायको छोड़कर द्रव्यको ध्यानका विषय बनाना अर्थसंक्रान्ति है। किसी एक श्रुतवचनका ध्यान करते करते वचनान्तर में पहुँचना और उसे छोड़कर अन्यका ध्यान करना व्यञ्जनसंक्रान्ति है । काययोगको छोड़कर मनोयोग या वचनयोगका अवलम्बन लेना तथा उन्हें छोड़कर काययोगका आलम्बन लेना योगसंक्रान्ति है । इस तरह गुप्ति आदिकी भूमिकापर ध्याये गये ये ध्यान कर्मबन्धन काटनेमें समर्थ होते हैं । इनका प्रारम्भ करनेके लिए यह परिकर्म अर्थात् तैयारी अपेक्षित होती है
उत्तमशरीरसंहनन होकर भी परीषहोंके सहनेकी क्षमताका आत्म-विश्वास हुए बिना ध्यान-साधना नहीं हो सकती । परीषहोंकी बाधा सहकर ही ध्यान प्रारम्भ किया जा सकता है । पर्वत, गुफा, वृक्षकी खोह, नदी, तट, पुल, श्मशान, जीर्ण उद्यान और शून्यागार आदि किसी स्थानमें व्याघ्र, सिंह, मृग, पशु-पक्षी, मनुष्य आदिके अगोचर, निर्जन्तु, समशीतोष्ण, अतिवायुरहित, वर्षा आतप आदिसे रहित, तात्पर्य यह कि सब तरफसे बाह्य आभ्यन्तर बाधाओंसे शून्य और पवित्र भूमिपर सुखपूर्वक पल्यङ्कासन से बैठना चाहिये । उस समय शरीरको सम ऋजु और निश्चल रखना चाहिये। बाएँ हाथपर दाहिना रखकर न खुले हुए और न बन्द किन्तु कुछ खुले हुए दाँतोंपर दाँतोंको रखकर, कुछ ऊपर किये हुए सीधी कमर और गम्भीर गर्दन किये हुए प्रसन्न और अनिमिष स्थिर सौम्यदृष्टि होकर निद्रा, आलस्य, कामराग, रति, अरति, शोक, हास्य, भय, द्वेष, विचिकित्सा आदिको छोड़कर मन्द मन्द श्वासोच्छ्वास लेनेवाला साधु ध्यानकी तैयारी करता है । वह नाभिके ऊपर हृदय, मस्तक या और कहीं अभ्यासानुसार चित्तवृत्तको स्थिर रखनेका प्रयत्न करता है। इस तरह एकाग्रचित्त होकर राग, द्व ेष, मोहका उपशम कर कुशलतासे
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