Book Title: Tattvarth Varttikam Part 02
Author(s): Akalankadev, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 381
________________ ९।३६) नवाँ अध्याय दर्शनसे आकुलित चित्तवाले प्रवादियोंके द्वारा प्रचारित कुमार्गसे ये प्राणी कैसे हटकर सुमार्गमें लगें और अनायतन सेवासे विरक्त हों, कैसे ये पापकारी वचन और भावनाओंसे निवृत होकर सुपथगामी बनें इस प्रकार अपायचिन्तन अपायविचय ध्यान है। ८.ज्ञानावरण आदि कोंके द्रव्य क्षेत्र काल भव और भावनिमित्तक फलानुभवनका विचार विपाकविचय है। मिथ्यात्व एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय जाति आतप स्थावर सूक्ष्म अपर्याप्तक और साधारण इन दस प्रकृतियों का प्रथम गुणस्थानमें ही उदय है आगे नहीं। अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभका प्रथम और द्वितीय गुणस्थानों में उदय है आगे नहीं। सम्पमिथ्यात्व प्रकृतिका तीसरेमें ही उदय है आगे पीछे नहीं। अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ नरकायु देवायु नरकगति देवगति वैक्रियिक शरीर वैक्रियिक अंगोपांग चारों आनुपूर्वी दुर्भग अनादेय और अयशस्कीर्ति इन सत्रह कर्म प्रकृतियोंका उदय असंयत सम्यग्दृष्टि तक ही होता है आगे नहीं। चारों आनुपूर्वियोंका उदय मिश्र गुणस्थानमें नहीं होता। प्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ तिर्यंचगति उद्योत और नीच गोत्र इन आठ प्रकृतियोंका उदय देशसंयत गुणस्थान तक होता है आगे नहीं। निद्रा-निद्रा प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि इन तीन कर्म प्रकृतियोंका उदय आहारक शरीरकी निवृत्ति न करनेवाले प्रमत्तसंयतोंके होता है । आहारक शरीर और आहारक शरीर-अङ्गोपाङ्गका उदय अप्रमत्तसंयतमें ही होता है न ऊपर और न नीचे, सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत पर्यन्त होता है। अर्धनाराच संहनन कीलक संहनन और असंप्राप्तामृपाटिकासंहनन इन तीनप्रकृतियोंका उदय अप्रमत्तसंयत तक होता है आगे नहीं। हास्य रति अरति शोक भय और जुगुप्सा इन छह कर्म प्रकृतियोंका उदय अपूर्वकरणके चरम समयतक होता है। तीनों वेद और क्रोध मान माया संज्वलनोंका उदय अनिवृत्तिबादरसाम्पराय तक है। इनका उदयच्छेद अनिवृत्तिबादरसाम्परायके सात भागोंके एक एक भागमें क्रमशः हो जाता है। लोभसंज्वलनका उदय दसवें गुणस्थान तक होता है । वननाराच और नाराव संहननका उदय उपशान्त कषाय तक होता है । निद्रा और प्रचलाका उदय क्षीणकपायके उपान्त्य समय तक होता है। पाँच ज्ञानावरण चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायोंका उदय क्षीणकषायके चरम समय तक होता है । कोई एक वेदनीय औदारिक तैजस कार्मणशरीर छह संस्थान औदारिकशरीराङ्गोपाङ्ग वनवृषभनाराचसंहनन वर्ण गन्ध रस स्पर्श अगुरुलघु उपघात परघात उच्छवास प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति प्रत्येकशरीर स्थिर अस्थिर शुभ अशुभ सुस्वर दुःस्वर और निर्माण इन तीस प्रकृतियोंका उदय सयोगकेवलीके चरम समय तक है, आगे नहीं। कोई एक वेदनीय मनुष्यायु मनुष्यगति पञ्चन्द्रियजाति त्रस बादर पर्याप्तक सुभग आदेय यशस्कीर्ति और उच्चगोत्र इन ग्यारह प्रकृतियोंका उदय अयोगकवलीके चरम समय तक है आगे नहीं। तीर्थंकर प्रकृतिका उदय दोनों केवलियोंके होता है अन्यके नहीं। ६५. अयथाकाल-बिना समय आगे होनेवाला कर्मविपाक उदीरणोदय है । मिथ्यादर्शनका उदोरणोदय उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्याष्टिक चरमावलीको छोड़कर अन्यत्र होता है। एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय जाति आतप स्थावर सूक्ष्म अपर्याप्तक और साधारण इन नव प्रकृतियोंका उदीरणोदय मिथ्याष्टिके होता है आगे नहीं। अनन्तानुबन्धी दोध मान माया लोभका उदीरणोदय मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टिके होता है ऊपर नहीं। सम्यङमिथ्यात्वका उदीरणोदय मिश्रमें ही होता है न आगे और न पीछे। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ नरकगति देवगति बैंक्रियिकशरीर वैक्रियिक अङ्गोपाङ्ग दुर्भग अनादेय और अयशस्कीर्ति इन ग्यारह प्रकृतियोंकी उदीरणा असंयतसम्यग्दृष्टि तक होती है। नरकायु और देवायुकी मरणकालमें चरमावलीको छोड़कर असंयतसम्यग्दृष्टि में ही उदीरणोदय होता है न ऊपर और न नीचे। चारों आनुपूर्वियोंकी विग्रहगतिमें ही मिथ्यादृष्टि सासादन और

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