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९।२५-२६]
नयाँ अध्याय प्रसिद्ध हो गये हों वे मनोज्ञ हैं । ऐसे लोगोंका संघमें रहना प्रवचनगौरवका कारण होता है। अथवा संस्कार सहित सुसंस्कृत असंयत सम्यग्दृष्टिको भी मनोज्ञ कहते हैं।
६१५-१६. इनपर व्याधि परीषह मिथ्यात्व आदिका उपद्रव होनेपर उसका प्रासुकऔषधि आहारपान आश्रय चौकी तख्ता और संथरा आदि धर्मोपकरणोंसे प्रतीकार करना तथा सम्यक्त्वमार्गमें दृढ़ करना वैयावृत्त्य है। औषध आदिके अभावमें अपने हाथसे खकार नाक आदि भीतरी मलको साफ करना और उनके अनुकूल वातावरणको बना देना आदि भी वैयावृत्त्य है।
६१७-१८. समाधिधारण ग्लानिका जय प्रवचनवात्सल्य तथा दूसरोंमें सनाथवृत्ति जताने आदिके लिये वैयावृत्त्यका करना आवश्यक है। यद्यपि संघवैयावृत्त्य या गणवैयावृत्त्य इस संक्षिप्त कथनसे कार्य चल सकता था फिर भी वैयावृत्त्यके योग्य अनेक पात्रोंका निर्देश इसलिये किया है कि इनमेंसे किसी में किसीकी प्रवृत्ति हो सकती है तथा करनी चाहिये। स्वाध्यायके भेद
वाचनाच्छनाऽनुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः ॥२५॥ ६१-६. निरपेक्षभावसे तत्त्वार्थज्ञके द्वारा पात्रको निरवद्य ग्रन्थ अर्थ या उभयका प्रतिपादन करना वाचना है । आत्मोन्नति परातिसन्धान परोपहास संघर्ष और प्रहसन आदि दोषोंसे रहित हो संशयच्छेद या निर्णयकी पुष्टिके लिये ग्रन्थ अर्थ या उभयका दूसरेसे पूछना पृच्छना है। पदार्थकी प्रक्रियाको जानकर गरम लोहपिण्डकी तरह चित्तको तद्रप बना देना और उसका बार-बार मनसे अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है। आचार-पारगामी व्रतीका लौकिकफलकी अपेक्षा किये बिना द्रुत बिलम्बित आदि पाठदोषोंसे रहित होकर पाठका फेरना, घोखना आम्नाय है। लौकिक ख्याति लाभ आदि फलकी आकांक्षाके बिना उन्मार्गकी निवृत्तिके लिये सन्देहकी व्यावृत्ति और अपूर्वपदार्थ के प्रकाशनके लिये धर्मकथा करना धर्मोपदेश है।
प्रज्ञातिशय प्रशस्तअध्यवसाय प्रवचनस्थिति संशयोच्छेद परवादियोंकी शंकाका अभाव परमसंवेग तपोवृद्धि और अतिचारशुद्धि आदिके लिए स्वाध्याय करना आवश्यक है। व्युत्सर्गके भेद
बाह्याभ्यन्तरोपध्योः ॥ २६ ॥ ६१. व्युत्सर्जनको व्युत्सर्ग कहते हैं । इसकी अपेक्षा षष्ठी विभक्ति दी गई है।
$२-५. जो पदार्थ अन्यमें बलाधानके लिए ग्रहण किये जाते हैं वे उपधि हैं। जो बाह्य पदार्थ आत्माके साथ एकत्व अवस्थाको प्राप्त नहीं हुए उनका त्याग बाझोपधिव्युसर्ग है। क्रोध मान माया लोभ मिथ्यात्व हास्य रति अरति भय और जुगुप्सा आदि अभ्यन्तर दोषोंकी निवृत्ति अभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्ग है। नियतकाल या यावज्जीव शरीरके प्रति ममत्वका त्याग भी अभ्यन्तर व्युत्सर्ग है।
१-१०. परिग्रहत्यागमहाव्रतमें सोना चाँदी आदिके त्यागका उपदेश है और त्यागधर्म प्रासुक निर्दोष आहार औषधि आदिका अमुक समयतक त्यागके लिये है, अतः व्युत्सर्ग उनसे पृथक् है । प्रायश्चित्तोंमें गिनाया गया व्युत्सर्ग अतिचार होनेपर उसकी शुद्धिके लिये किया जाता है पर यह व्युत्सर्ग स्वयं निरपेक्षभावसे किया जाता है । 'यहाँ उसका वर्णन होनेसे अन्य अनेक जगह उसका ग्रहण निरर्थक है' यह आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि विभिन्न शक्ति आदिकी अपेक्षा उसके विभिन्न प्रयोजन हैं । कहीं सावद्यका प्रत्याख्यान होता है और कहीं निरवद्य भी पदार्थ अमुक कालके लिये या अनियत काल के लिये छोड़े जाते है । तात्पर्य यह कि त्याग पुरुषकी शक्तिके अनुसार ही होता है । उत्तरोत्तर गुणोंमें प्रकृष्ट उत्साह उत्पन्न करनेके लिये इसको