________________
७९०
तत्त्वार्थवार्तिक- हिन्दी-सार
[ ९२७
सार्थकता है । निःसंगत्व निर्भयत्व जीविताशात्याग दोषोच्छेद और मोक्षमार्गाभावनातत्परत्व आदिके लिये दोनों प्रकारका व्युत्सर्ग करना अत्यावश्यक है ।
ध्यानका वर्णन
उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्त।निरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ||२७||
उत्तमसंहननवालेके एकाग्र चिन्तानिरोधको ध्यान कहते हैं । वह अन्तर्मुहूर्त तक
होता है ।
$१-७. वज्रवृषभनाराच वज्रमाराच और नाराच ये तीन संहनन उत्तम हैं । इनमें मोक्षका कारण प्रथम संहनन होता है और ध्यानके कारण तो तीनों हैं । अग्र अर्थात मुख, लक्ष्य | चिन्ता - अन्तःकरणव्यापार । गमन भोजन शयन और अध्ययन आदि विविध क्रियाओंमें भटकनेवाली चित्तवृत्तिका एक क्रियामें रोक देना निरोध है। जिस प्रकार वायुरहित प्रदेश में दीपशिखा अपरिस्पन्द - स्थिर रहती है उसी तरह निराकुल- देश में एक लक्ष्य में बुद्धि और शक्तिपूर्वक रोकी गई चित्तवृत्ति विना व्याक्षेपके वहीं स्थिर रहती है, अन्यत्र नहीं भटकती । अथवा अग्रशब्द अर्थवाची है, अर्थात् एक द्रव्यपरमाणु या भावपरमाणु या अन्य किसी अर्थ में चित्तवृत्तिको केन्द्रित करना ध्यान है ।
८९. ध्येयके प्रति अव्यावृत उदासीन भावमात्रकी विवक्षा होने पर 'ध्यातिः ध्यानम्' इस प्रकार ध्यान शब्द भावसाधन होता है । 'ध्यायतीति ध्यानम्' ऐसा कर्तृसाधन भी बहुलकी अपेक्षा होता है । करणकी विशेष प्रशंसा करनेके हेतु जैसे 'तलवार अच्छी तरह छेदती है' यहाँ करणमें कर्तृत्व धर्मका आरोप किया जाता है उसी तरह ध्यान करनेवाले आत्माका ध्यान परिणाम चूँकि ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमके आधीन है अतः उसीको कर्ता कह दिया है । जब पर्याय और पर्यायी में भेदकी विवक्षा होती है तत्र जैसे दाहादिमें प्रवृत्त अग्निकी स्त्रपर्याय ही करण कह दी जाती है उसी तरह आत्माकी ही पर्याय करण कही जाती है । यह समस्त व्यवस्था अनेकान्तवादमें ही बन सकती है; क्योंकि एकान्त पक्ष में अनेक दोष दिये जा चुके हैं।
१०- १५. मुहूर्त ४८ मिनिटका होता है । उत्तम संहननवाला जीव ही इतने समय तक ध्यान धारण कर सकता है अन्य संहननवाले नहीं । 'एकाम' शब्द व्यग्रताकी निवृत्तिके लिये है। ज्ञान व्यग्र होता है और ध्यान एकाग्र । आहारादिका समय आ जाने से चित्तवृत्ति ध्यान से च्युत हो जाती है अतः ध्यानका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसके बाद एक ही ध्यान लगातार नहीं रह सकता ।
९१६ - १७. चिन्तानिरोध तुच्छ अभाव नहीं है किन्तु भावान्तररूप है । अन्य चिन्ताओं के अभावकी अपेक्षा ध्यान असत् होकर भी विवक्षित लक्ष्यके सद्भावकी अपेक्षा सत् है | अभाव भी वस्तु है क्योंकि वह (विपक्षाभाव ) हेतुका अङ्ग होता है । अतः कोई दोष नहीं है ।
१८- २२. स्पष्टता के लिये 'एकार्थचिन्तानिरोध' पद देने में अनिष्ट प्रसङ्ग होता है । ध्यानमें अर्थसंक्रम स्वीकार किया है । 'वीचारोऽर्थ व्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः ' इस सूत्र में द्रव्यसे पर्याय और पर्यायसे द्रव्यमें संक्रमका विधान किया गया | एका पद देने में यह दोष नहीं है; क्योंकि अप्रका अर्थ मुख होता है, अतः ध्यान अनेकमुखी न होकर एकमुखी रहता है और उस एक मुखमें ही संक्रम होता रहता है । अथवा, अग्रशब्द प्राधान्यवाची है अर्थात् प्रधान आत्माको लक्ष्य बनाकर चिन्ताका निरोध करना । अथवा, 'अङ्गतीति अग्रम् आत्मा' इस व्युत्पत्ति में द्रव्यरूपसे एक आत्माको लक्ष्य बनाना स्वीकृत ही है । ध्यान स्ववृत्ति होता है, इसमें