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९११४-१७] नयाँ अध्याय
७८३ अन्य ज्ञानावरणके उदयमें मद उत्पन्न करती है, समस्त ज्ञानावरणका क्षय होनेपर मद नहीं होता । अतः प्रज्ञा और अज्ञान दोनों ज्ञानावरणसे उत्पन्न होते हैं । मोहनीयकर्मके भेद गिने हुए हैं और उनके कार्य भी दर्शन चारित्र आदिका नाश करना सुनिश्चित है अतः 'मैं बड़ा विद्वान् हूँ' यह प्रज्ञामद मोहका कार्य न होकर ज्ञानावरणका कार्य है। चारित्रवालोंके भी प्रज्ञापरीषह होती है।
दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥१४॥ ६१-२. 'दर्शनमोह' इस विशिष्ट कारणका निर्देश करनेसे अवधिदर्शन आदिका सन्देह नहीं रहता । अन्तराय सामान्यका निर्देश होनेपर भी यहाँ सामर्थ्यात् लाभान्तराय ही विवक्षित है। अर्थात्, अदर्शन परीषह दर्शनमोहके उदयसे और अलाभ परीषह लाभान्तरायके उदयसे होती है।
चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः ॥१५॥ ६१. पुवेद आदि चारित्रमोहके उदयसे नान्य अरति श्री निषचा आक्रोश याचना और सत्कारपुरस्कार परीषह होती हैं। मोहके उदयसे ही प्राणिहिंसाके परिणाम होते हैं अतः निषधापरीषह भी मोहोदयहेतुक ही समझनी चाहिये।
वेदनीये शेषाः ॥१६॥ ३१-३. क्षुधा पिपासा शीत उष्ण दंशमशक चर्या शय्या वध रोग तृणस्पर्श और मल ये शेष ग्यारह परीषह वेदनीयसे होती हैं। 'वेदनीय' में सप्तमी विभक्ति कर्मसंयोगार्थक नहीं है किन्तु विद्यमानार्थक है। जैसे 'गोषु दुह्यमानासु गतः दुग्धासु आगतः' यहाँ सप्तमी है उसीतरह वेदनीयके रहनेपर ये परीषह होती हैं यहाँ समझना चाहिये।
एकसाथ कितनी परोषह होती हैं।
___एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोनविंशतः ॥१७॥ एकसाथ एकजीवके १९ परीषह तक होती हैं।
$१-२. 'आङ्' अभिविधि अर्थ में है, अतः किसीके १९ भी परीषह होती हैं। शीत और उष्णमेंसे कोई एक तथा शय्या निषद्या और चर्यामेंसे कोई एक परीषह होनेसे १९ परीषह होती हैं।
३-६. श्रुतज्ञानकी अपेक्षा प्रज्ञाप्रकर्ष होनेपर भी अवधि आदिको अपेक्षा अज्ञान हो सकता है अतः दोनोंको एक साथ होने में कोई विरोध नहीं है।
'प्रज्ञा और अज्ञानका विरोध होनेपर भी दंश और मशकको जुदी-जुदी परीषह मानकर उन्नीस संख्याका निर्वाह किया जा सकता है। यह समाधान ठीक नहीं है क्योंकि 'दंशमशक' यह एक ही परीषह है। मशक शब्द तो प्रकारवाची है। दंश शब्दसे ही तुल्य जातियोंका बोध करके मशक शब्दको निरर्थक कहना उचित नहीं है, क्योंकि इससे श्रुतिविरोध होता है। जो शब्द जिस अर्थको कहे वही प्रमाण मानना चाहिये । दंशशब्द प्रकारार्थक तो है नहीं । यद्यपि मशक शब्दका भी सीधा प्रकार अर्थ नहीं होता पर जब दंशशब्द डाँस अर्थको कहकर परीषहका निरूपण कर देता है तब मशक शब्द प्रकार अर्थका ज्ञापन करा देता है।
७. प्रश्न-चर्यादि तीन परिषह समान हैं, एक साथ नहीं हो सकतीं, क्योंकि बैठने में परीषह आनेपर सो सकता है, सोनेमें परीषह आनेपर चल सकता है, और सहनविधि एक जैसी है तब इन्हें एक परीषह मान लेना चाहिये और दंशमशकको दो स्वतन्त्र परीषह मानकर परीषहाँकी कुल संख्या २१ रखनी चाहिये। फिर एक कालमें शीत-उष्णमें से एक तथा शय्या चयों