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तत्वार्थवार्तिक- हिन्दी-सार
[ ९/२०-२२
नियमन वृत्ति परिसंख्यानमें होता है, अनशनमें भोजनमात्राकी निवृत्ति और अवमोदर्य और रसपरित्यागमें भोजनकी आशिंक निवृत्ति होती है । अतः तीनोंमें महान् भेद है ।
१२. बाधानिवारण ब्रह्मचर्य स्वाध्याय और ध्यान आदिके लिए निर्जन्तु शून्यागार गिरिगुफा आदि एकान्त स्थानमें बैठना सोना आदि विविक्तशय्यासन है ।
९१३ १६. अनेक प्रकार के प्रतिमायोग धारण करना मौन रहना आतापन वृक्षमूलनिवास आदि से शरीर परिवेद करना कायक्लेश है । इससे अचानक दुःख आनेपर सहनशक्ति बनी रहती है और विषय सुखमें अनासक्ति होती है । प्रवचनप्रभावना भी क्लेशका एक उद्द ेश्य है । अन्यथा ध्यान आदिके समय सुखशील व्यक्तिको द्वन्द्व आनेपर चित्तका समाधान नहीं हो सकेगा | काय क्लेश तप परीषहजातीय नहीं है; क्योंकि परीषह जब चाहे आते हैं और कायक्लेश बुद्धिपूर्वक किया जाता है । सभी तपोंमें ऐहलौकिक फलकी कामना नहीं होनी चाहिये | 'सम्यकू' पदकी अनुवृत्ति आने से दृष्टफल निरपेक्षताका होना तपोंमें अनिवार्य है ।
बाह्य अशन आदि द्रव्योंकी अपेक्षा रखनेसे, बाह्यजन अन्य मतवाले और गृहस्थ भी चूँकि इन तपों को करते हैं तथा दूसरोंके द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञेय होनेसे इन तपोंको बाह्यतप कहते हैं । जैसे अग्नि संचित तृण आदि ईंधनको भस्म कर देती है उसी तरह अनशनादि अर्जित मिथ्यादर्शन आदि कर्मका दाह करते हैं तथा देह और इन्द्रियोंकी विषयप्रवृत्ति रोककर उन्हें तपा देते हैं अतः ये तप कहे जाते हैं । इनसे इन्द्रिय निमह सहज हो जाता है।
अभ्यन्तरतप
प्रायश्चित्तविनयत्रैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥ २० ॥
११- ३. प्रायश्चित्त आदि तप चूँकि बाह्य द्रव्योंकी अपेक्षा नहीं करते, अन्तःकरण के व्यापार से होते हैं तथा अन्य मतवालोंसे अनभ्यस्त और अप्राप्तपार हैं अतः ये उत्तर अर्थात् आभ्यन्तर तप हैं ।
नवचतुर्दशपञ्चद्विभेदं यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् ॥ २१ ॥
६१-२. नव आदि संख्यापदोंकी भेद शब्दके साथ अन्य पदार्थ प्रधान समास है । यद्यपि द्वन्द्व में स्वन्त और अल्पाच्तर तथा अल्प संख्याका पूर्व निपात होता है फिर भी पूर्व सूत्र में निर्दिष्ट प्रायश्चित्त आदिले क्रमशः सम्बन्ध करनेके लिए द्वि शब्दका पूर्वनिपात नहीं किया । यदि यही आग्रह है कि प्रयोजन रहने पर भी व्याकरणका उल्लंघन नहीं किया जा सकता तो 'राजदन्तादि' में पाठ करके निर्वाह कर लिया जायगा । ध्यानसे पहिले पहिले क्रमशः नव आदि संख्याओं का सम्बन्ध कर लेना चाहिये ।
प्रायश्चित्तके भेद - आलोचनप्रतिक्रमणतदुभ्यविवेकव्युत्सर्गत पश्छेदपरिहारोपस्थापनाः ||२२||
S १. प्रायः साधुलोक, जिस क्रियामें साधुओंका चित्त हो वह प्रायश्चित्त । अथवा, प्रायअपराध, उसका 'शोधन जिससे हो वह प्रायश्चित्त । प्रमाद दोष व्युदास, भावप्रसाद निःशल्यत्व अव्यवस्थानिवारण मर्यादाका पालन संयमकी दृढ़ता आराधना सिद्धि आदिके लिए प्रायश्चित्तसे विशुद्ध होना आवश्यक हैं ।
२. एकान्तमें विराजमान प्रसन्नचित्त गुरुके समक्ष देशकालज्ञ शिष्यके द्वारा सविनय आत्मदोषों का निवेदन करना आलोचन है । आलोचना दस दोष रहित करनी चाहिये ।
वे दोष ये हैं- उपकरण देनेसे मुझे लघु प्रायश्चित्त देगें इस विचारसे प्रायश्चित्तके समय उपकरण आदि देना पहिला दोष है । 'मैं दुर्बल हूँ रोगी हूँ उपवास आदि नहीं कर सकता' यदि