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तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार रहती है, वह तो जैसा भी आहार प्राप्त होता है वैसा खाता है। अतः भिक्षाको गौकी तरह चार-गोचार या गवेषणा कहते हैं । जैसे वणिक रत्न आदिसे लदी हुई गाड़ीमें किसी भी तेलका लेपन करके-ओंगन देकर उसे अपने इष्ट स्थानपर ले जाता है उसी तरह मुनि भी गुणरत्नसे भरी हुई शरीररूपी गाड़ीको निर्दोष भिक्षा देकर उसे समाधिनगरतक पहुँचा देता है, अतः इसे अक्षम्रक्षण कहते हैं। जैसे भण्डारमें आग लग जानेपर शुचि या अशुचि कैसे भी पानीसे उसे बुझा दिया जाता है उसी तरह यति भी उदराग्निका प्रशमन करता है अतः इसे उदराग्निप्रशमन कहते हैं । दाताओंको किसी भी प्रकारकी बाधा पहुँचाये बिना मुनि कुशलतासे भ्रमरकी तरह आहार ले लेते हैं, अतः इसे भ्रमराहार या भ्रामरी वृत्ति कहते हैं। जिस किसी भी प्रकारसे गड्ढा भरनेकी तरह मुनि स्वादु या अस्वादु अन्नके द्वारा पेटरूपी गड्ढेको भर देता है अतः इसे स्वभ्रपूरण भी कहते हैं।
प्रतिष्ठापन शुद्धिमें तत्पर संयत देश और कालको जानकर नख रोम नाक थूक वीर्य मलमूत्र या देहपरित्यागमें जन्तुबाधाका परिहार करके प्रवृत्ति करता है।
शय्या और आसनकी शुद्धिमें तत्पर संयतको स्त्री क्षुद्र चोर मद्यपान जुआ शराबी और पक्षियोंको पकड़नेवाले आदिके स्थानों में नहीं बसना चाहिये, और श्रृंगार विकार आभूषण उज्ज्वलवेष वेश्याकोड़ा मनोहर गीत नृत्य वादित्र आदिसे परिपूर्णशाला आदिमें रहना आदिका त्याग करना चाहिये। उन्हें तो प्राकृतिक गिरिगुफा वृक्षको खोह तथा शून्य मकान या छोड़े हए ऐसे मकानों में बसना चाहिये जो उनके उद्देश्यसे नहीं बनाये गये हों और न जिनमें उनके लिए कोई आरम्भ ही किया गया हो।
- पृथिवी कायिक आदि सम्बन्धी आरम्भ आदिकी प्रेरणा जिसमें न हो तथा जो परुष निष्ठुर और पर पीडाकारी प्रयोगोंसे रहित हो व्रतशील आदिका उपदेश देनेवाली हो वह सर्वतः योग्य हित मित मधुर और मनोहर वाक्यशुद्धि है। वाक्यशुद्धि सभी सम्पदाओंका आश्रय है।
२७. कर्मक्षयके लिए जो तपा जाय वह तप है।
६१८-२०. सचेतन या अचेतन परिग्रहकी निवृत्तिको त्याग कहते हैं। आभ्यन्तर तपोंमें आये हुए उत्सर्ग में नियत समयके लिए सर्वोत्सर्ग किया जाता है पर त्यागधर्ममें यथाशक्ति और अनियतकालिक त्याग होता है अतः दोनों पृथक पृथक हैं। इसी तरह शौचधर्ममें परिग्रहके न रहनेपर भी कर्मोदयसे होनेवाली तृष्णाकी निवृत्ति की जाती है पर त्यागमें विद्यमान परिग्रह छोड़ा जाता है। अथवा त्यागका अर्थ है स्वयोग्य दान देना । संयतके योग्य ज्ञानादि दान देना त्याग है।
२१. शरीर आदिमें संस्कार और राग आदिकी निवृत्तिके लिए 'ममेदम्-यह मेरा है। इस प्रकारके अभिप्रायका त्याग आकिञ्चन्य है। 'इसके कुछ नहीं' इस प्रकार अकिंचन भावको आकिञ्चन्य कहते है।
२२-२३. 'मैंने उस कलागुण विशारदा स्त्रीको भोगा था' इस प्रकार अनुभूतांगनाका स्मरण स्त्रीकथाश्रवण रतिकालीन गन्ध द्रव्योंकी सुवास और स्त्रीसंसक्त शय्या आसन स्थान आदिका परिवर्जन करनेपर परिपूर्ण ब्रह्मचर्य होता है । अथवा, ब्रह्मा अर्थात् गुरु, उसके अधीन अपनी वृत्ति रखना ब्रह्मचर्य है। गुरुकी आज्ञापूर्वक चलना भी ब्रह्मचर्य ही है।
२४-२५. यद्यपि ये सभी यथासंभव गुप्ति और समितियोंमें अन्तर्भूत हो जाते हैं फिर भी इन धर्मों में चूँकि संवरको धारण करनेकी सामर्थ्य है इसलिए 'धारण करनेसे धर्म' इस सार्थक संज्ञावाले धर्मोंका पृथक उपदेश किया है। अतः पुनरुक्ति दोष नहीं है। जैसे ऐर्यापथिक रात्रिन्दिनीय पाक्षिक चातुर्मासिक सांवत्सरिक उत्तमस्थानिक ये सात प्रतिक्रमण