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तत्त्वार्थवार्तिक- हिन्दी-सार
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६२. सम्यग्ज्ञान आदि मोक्षके साधनों में तथा ज्ञानके निमित्त गुरु आदिमें योग्य रीतिसे सत्कार आदर आदि करना तथा कषायकी निवृत्ति करना विनयसम्पन्नता है ।
९३. अहिंसा आदि व्रत तथा उनके परिपालनके लिए क्रोधवर्जन आदि शीलोंमें काय, वचन और मनकी निर्दोष प्रवृत्ति शीलवतेष्वनतिचार है ।
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१४. जीवादि पदार्थोंको प्रत्यक्ष और परोक्ष रूपसे जाननेवाले मति आदि पाँच ज्ञान हैं । अज्ञाननिवृत्ति इनका साक्षात् फल है तथा हितप्राप्ति अहितपरिहार और उपेक्षा व्यवहित फल हैं। इस ज्ञानकी भावना में सदा तत्पर रहना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है ।
९५. शारीर मानस आदि अनेक प्रकारके प्रियवियोग अप्रियसंयोग इष्टका अलाभ आदिरूप सांसारिक दुःखोंसे नित्यभीरुता संवेग है ।
६. परकी प्रीति के लिए अपनी वस्तुको देना त्याग है। आहार देनेसे पात्रको उस दिन प्रीति होती है । अभयदानसे उस भवका दुःख छूटता है, अतः पात्रको सन्तोष होता है । ज्ञानदान तो अनेक सहस्र भवोंके दुःखसे छुटकारा दिलानेवाला है । ये तीनों दान विधिपूर्वक दिये गये त्याग कहलाते हैं ।
९७. अपनी शक्तिको नहीं छिपाकर मार्गाविरोधी कायक्लेश आदि करना तप है । यह शरीर दुःखका कारण है, अशुचि है, कितना भी भोग भोगो पर इसकी तृप्ति नहीं होती । यह अशुबि होकर भी शीलव्रत आदि गुणोंके संचय में आत्माकी सहायता करता है यह विचारकर विषयविरक्त हो आत्मकार्य के प्रति शरीरका नौकरकी तरह उपयोग कर लेना उचित है । अतः मार्गाविरोधी कायक्लेश आदि करना तप है ।
१८. जैसे भण्डार में आग लगनेपर वह प्रयत्नपूर्वक शान्त की जाती है उसी तरह अनेक व्रतशीलोंसे समृद्ध मुनिगणके तप आदिमें यदि कोई विघ्न उपस्थित हो जाय तो उसका निवारण करना साधुसमाधि है ।
१९. गुणवान् साधुओंपर आये हुए कष्ट रोग आदिको निर्दोष विधिसे हटा देना, उनकी सेवा आदि करना बहु उपकारी वैयावृत्त्य है ।
S- १०. केवलज्ञान श्रुतज्ञान आदि दिव्यनेत्रधारी परहितप्रवण और स्वसमयविस्तारनिश्चयज्ञ अर्हन्त आचार्य और बहुश्रुतों में तथा श्रुतदेवता के प्रसादसे कठिनता से प्राप्त होनेवाले मोक्षमहलकी सीढ़ीरूप प्रवचन में भावविशुद्धिपूर्वक अनुराग करना अर्हद्भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति और प्रवचनभक्ति है ।
$ ११. सामायिक चतुर्विंशतिस्तव वन्दना प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक क्रियाओं को यथाकाल बिना नागा किये स्वाभाविक क्रमसे करते रहना आवश्यकापरिहाणि है । सर्व सावद्ययोगों का त्याग करना, चित्तको एकाग्र रूप से ज्ञान में लगाना सामायिक है | तीर्थंकरोंके गुणोंका कीर्तन चतुर्विंशतिस्तव है । मन वचन कायकी शुद्धिपूर्वक खडगासन या पद्मासन से चार बार शिरोनति और बारह आवर्त पूर्वक वन्दना होती है । कृत दोषों की निवृत्ति प्रतिक्रमण है । भविष्य में दोष न होने देनेके लिए सन्नद्ध होना प्रत्याख्यान है । अमुक समयतक शरीर से ममत्वका त्याग करना कायोत्सर्ग है ।
१२. परसमयरूपी जुगुनुओंके प्रकाशको पराभूत करनेवाले ज्ञानरविकी प्रभासे, इन्द्रके सिंहासनको कँपा देनेवाले महोपवास आदि सम्यक् तपोंसे तथा भव्यजनरूपी कमलों को विकसित करनेके लिए सूर्यप्रभा समान जिनपूजाके द्वारा सद्धर्मका प्रकाश करना मार्गप्रभावना है।
१३. जैसे गाय अपने बछड़ेसे अकृत्रिम स्नेह करती है उसी तरह धार्मिक जनको