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नाममाया
८।१६-२१]
आठवाँ अध्याय सौ सागर स्थिति है । अपर्याप्तक एकेन्द्रियकेपल्योपमके असंख्येयभाग कम स्वपर्याप्तककी उत्कृष्टस्थिति तथा द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियोंके पल्योपमके संख्यातभागसे कम स्वपर्याप्तककी स्थिति प्रमाण उत्कृष्टस्थिति समझनी चाहिये । असंज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्तकके एक हजार सागर तथा अपप्तिकके पल्योपमके संख्यातभाग कम एक हजार सागर स्थिति है । अपर्याप्तकसंज्ञीके अन्त:कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है। नामगोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति
विंशतिर्नामगोत्रयोः ॥१६॥ __ संज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम और गोत्रकी उत्कृष्टस्थिति २० कोडाकोड़ी सागर है। एकेन्द्रिय पर्याप्तकके 3 सागर, द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके २५का : सागर, त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके ५०का । सागर, चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके १००का 3 सागर, असंज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्तकके १०००का : सागर
और संज्ञिपंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थिति है । एकेन्द्रियअपर्याप्तकके पल्यके असंख्येय भागसे कम सागर तथा द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय अपयाप्तक असंज्ञियोंके पल्योपमके संख्यात भागसे कम स्वपर्याप्तककी स्थिति ही उत्कृष्टस्थिति समझनी चाहिए। आयुकी उत्कृष्ट स्थिति
त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥१७॥ ६१. सागरोपम पदसे अब कोड़ाकोड़ी सागरकी व्यावृत्ति हो जाती है। संक्षिपर्यासकके आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागर प्रमाण है। असंक्षिपंचेन्द्रिय पर्याप्तकके पल्योपमके असंख्यातवें भाग तथा शेषके पूर्वकोटिप्रमाण उत्कृष्टस्थिति है। ___ अन्य कोंकी जघन्यस्थितियोंसे जिनकी कुछ विशेष जघन्यस्थिति है उनका निरूपण करते हैं।
अपरा द्वादश मुहूर्ता वेदनीयस्य ॥१८॥ सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें वेदनीयकी जघन्यस्थिति १२ मुहूर्त प्रमाण है।
नामगोत्रयोरष्टौ ॥१९॥ सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें नाम और गोत्रकी जघन्यस्थिति ८ मुहूर्त है।
शेषाणामन्तर्मुहर्ता ॥२०॥ शानावरण दर्शनावरण और अन्तरायकी सूक्ष्मसाम्परायमें तथा मोहनीयकी अनिवृत्तिबादर साम्परायमें और आयुकी संख्यातवर्षकी आयुवाले तिर्यचों और मनुष्योंमें जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त है। अनुभव बन्धका वर्णन- ।
विपाकोऽनुभवः ॥२१॥ ६१. ज्ञानावरण आदि कर्म प्रकृतियोंके जो कि अनुग्रह और उपघात करनेवाली हैं, तीव्र मन्दमावनिमित्तक विशिष्ट पाकको विपाक कहते हैं । अथवा, द्रव्य क्षेत्र काल भव और भाव इन निमित्तोंके भेदसे नाना प्रकारके पाकको विपाक कहते हैं। इसीको अनुभव कहते हैं। शुभ परिणामोंकी प्रकर्षतामें शुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अशुभ प्रकृतियोंका निकृष्ट तथा अशुभपरिणार्मोकी प्रकर्षतामें अशुभप्रकृतियोंका उत्कृष्ट और शुभ प्रकृतियोंका निकृष्ट अनुभाग बन्ध होता है।
- अनुभव अर्थात् फलविपाक दो प्रकारसे होता है-स्वमुखसे और परमुखसे । सभी मूल प्रकृतियोंका स्वमुखसे ही विपाक होता है। उत्तर प्रकृतियोंमें आयु दर्शनमोह और चारित्र मोह