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९.१] नयाँ अध्याय
७६१ रोपयोग और तीनों वेदों से किसी एक वेदसे युक्त होकर भी संक्लेश-रहित हो, प्रवर्धमान शुभपरिणामोंसे सभी कर्म-प्रकृतियोंकी स्थितिको कम करते हुए, अशुभ कर्म प्रकृतियोंके अनुभागका खण्डन कर शुभप्रकृतियोंके अनुभागरसको बढ़ाते हुए तीन करणोंको प्रारम्भ करते हैं। अथाप्रवृत्तकरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनों करणोंका काल अन्तर्मुहूर्त है। कालादि लब्धियोंसे संयुक्त वह मिथ्यादृष्टि कोंकी स्थिति अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण करके अथाप्रवृत्तकरण करनेको तैयार होता है । यह करण पहिले कभी नहीं हुआ अतः इसे अथाप्रवृत्तकरण कहते हैं। प्रथम समयमें अल्प-विशद्धि होती है, द्वितीय समयमें जघन्य अनन्तगुणी, तृतीय समयमें जघन्य अनन्तानन्तगुणी इस तरह अन्तर्मुहूर्तकी समाप्तितक विशुद्धि बढ़ती जाती है। फिर प्रथम समयमें उत्कृष्ट अनन्तगुणी द्वितीय समयमें उत्कृष्ट अनन्तानन्तगुणी आदि अथाप्रवृत्तके चरम समयतक विशुद्धि बढ़ती जाती है। इस करणको करनेवाले असंख्य लोकप्रमाण नाना जीवोंके परिणाम सम और विषम होते हैं। यह अथाप्रवृत्तकरण है। अपूर्वकरणके प्रथम समयमें अल्प जघन्य विशुद्धि होती है द्वितीय समयमें उत्कृष्ट उसकी अनन्तगुणी, फिर जघन्य अनन्तगुणी फिर उत्कृष्ट अनन्तगुणी इस तरह अन्तर्मुहूर्तकी परिसमाप्तितक क्रम समझना चाहिये । इस करणके धारी असंख्य लोक प्रमाण नानाजीवोंके परिणाम नियमसे विषम होते हैं। इनका समदायरूप अपूर्वकरण है । अपूर्व-अपूर्व स्वाद होनेसे इसकी अपूर्वकरण संहा सार्थक है। अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें नानाजीवोंके परिणाम एकरूप ही होते हैं, द्वितीय समयमें उससे अनन्तगुणे विशुद्ध होकर भी एकरूप ही रहते हैं। इस तरह अन्तर्मुहूर्त कालतक उत्तरोत्तर विशुद्ध परिणाम होते हैं । इन सबका समुदाय अनिवृत्तिकरण है । परस्पर निवृत्ति-भेद न होनेसे इसकी अनिवृत्तिकरण संज्ञा सार्थक है । अथाप्रवृत्तकरणमें स्थितिखण्डन अनुभागखण्डन गुणश्रेणी और गुणसंक्रमण नहीं होता, केवल अनन्तगुणी विशुद्धि होनेसे वह अप्रशस्त प्रकृतियोंको अनन्तगुण अनुभागहीन और प्रशस्त प्रकृतियोंको अनन्तगुणरससमृद्धरूपसे बाँधता है। स्थिति भी पल्योपमके संख्येयभागसे हीन बाँधता है । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें स्थितिखण्डन आदि होते हैं । स्थितिबन्ध भी उत्तरोत्तर न्यून होता जाता है । अशुभप्रकृतियोंका अनुभाग अनन्तगुणहीन और शुभप्रकृतियोंका अनन्तगुणसमृद्ध होता जाता है । अनिवृत्तिकरणकालके संख्येयभाग जानेपर अन्तरकरण प्रारम्भ होता है। इससे मिथ्यादर्शनका उदयघात किया जाता है। अन्तिम समयमें मिथ्यादर्शनके तीन खण्ड किये जाते हैं-सम्यक्त्व मिथ्यात्व और सम्यङमिथ्यात्व । इन तीन प्रकृतियोंका तथा अनन्तानुबन्धी क्रोधमान माया और लोभके उदयका अभाव होनेपर अन्तर्मुहूर्त कालतक प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है। उसके कालमें जब अधिकसे अधिक वह आवली और कमसे कम एक समय शेष रहता है तब यदि अनन्तानुबन्धी क्रोधमान माया और लोभमेंसे किसी एकका उदय आजाता है तब सासादन सम्यग्दृष्टि होता है। आसादन-विराधना, आसादनके साथ होनेवाला सासादन कहलाता है। मिथ्यादर्शनका उदय न होनेपर भी इसके तीनों मति श्रुत और अवधिज्ञान अज्ञान कहे जाते हैं। अनन्तमिथ्यावर्शनको बाँधनेवाली कषाय अनन्तनुबन्धी कही जाती है। यह कषाय मिथ्यादर्शनके फलोंको उत्पन्न करती है अतः मिथ्यादर्शनको उदयमें आनेका रास्ता खोल देती है।
६१४ क्षीणाक्षीण मदशक्तिवाले कोदोंके उपभोगसे जैसे कुछ मिला हुआ मदपरिणाम होता है उसीतरह सम्यमिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे तत्त्वार्थश्रद्धान और अभद्धानरूप मिला हुआ परिणाम होता है । यह तीसरा सम्यमिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। इसके तीनों ज्ञान अज्ञानसे मिश्रित होते हैं।
१५. औपशमिक क्षायिक या क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनसे युक्त होकर भी जो चारित्रमोहके उदयसे अत्यन्त अविरत परिणामवाला होता है वह असंयत सम्यग्दृष्टि है । इसके