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नवाँ अध्याय
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आदि सासादन सम्यग्दृष्टि- पर्यन्त जीव बन्धक होते हैं । अनन्तानुबन्धीके अभाव में आगे इनका संवर हो जाता है । अप्रत्याख्यानावरण- क्रोध मान माया लोभ मनुष्यायु मनुष्यगति औदारिक शरीर औदारिक अंगोपांग वज्रर्ष भनाराचसंहनन और मनुष्यगति - प्रायोग्यानुपूर्व्य इन अप्रत्याख्यानावरण कषायहेतुक दश प्रकृतियों को एकेन्द्रिय आदि असंयतसम्यग्दृष्टि पर्यन्त बन्धक होते हैं, उसके अभाव में आगेके गुणस्थानोंमें इनका संवर हो जाता है । सम्यङ मिध्यात्व गुणस्थान में आयुर्बन्ध नहीं होता । प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया और लोभ इन चार प्रत्याख्यानावरणनिमित्त प्रकृतियोंके एकेन्द्रिय आदि संयतासंयत पर्यन्त बन्धक होते हैं, उसके अभाव में आगे गुणस्थानों में इनका संवर हो जाता है ।
२८. असातावेदनीय अरति शोक अस्थिर अशुभ और अयशस्कीर्ति इन प्रमादनिमित्तक कर्मप्रकृतियों का प्रमत्तसंयतसे आगे संवर हो जाता है । देवायुके बन्धके आरम्भका प्रमाद ही हेतु होता है और उसके समीपका अप्रमाद भी । अतः अप्रमत्तके आगे उसका भी संवर हो जाता है । २९. कषायमात्रहेतुक कर्म प्रकृतियोंका कषायके अभाव में संवर होता है । प्रमादादिरहित कषाय तीनों गुणस्थानों में तीव्र मध्य और जघन्यरूपसे विद्यमान रहता है। अपूर्वकरण आदि संख्येयभाग में निद्रा और प्रचला ये दो कर्मप्रकृतियाँ बँधती हैं। उससे आगे संख्याभाग में देवगति पंचेन्द्रिय जाति वैक्रियिक आहारक तैजस कार्मणशरीर समचतुरस्रसंस्थान वैक्रियिकअंगोपांग आहारक अंगोपांग वर्ण गन्ध रस स्पर्श देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य अगुरुलघु उपघात परघात उच्छवास प्रशस्त विद्दायोगति त्रस बादर पर्याप्त प्रत्येकशरीर स्थिर शुभ-सुभग सुरवर आदेय तीर्थंकर और निर्माण ये तीस प्रकृतियाँ बँधती हैं । उसीके चरमसमय में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा ये चार प्रकृतियाँ बँधती हैं। ये तीव्रकपायकी आस्रवप्रकृतियाँ उसके अभाव में निर्दिष्ट भागसे आगे संवरको प्राप्त हो जाती हैं । अनिवृत्तित्रादरसाम्परायके प्रथम समय से लेकर संख्यात भागों में पुंवेद और क्रोध संज्वलन बँधते हैं, उसके आगे शेष संख्येय भागों में मानसंज्वलन और मायासंज्वलन बँधते हैं, अन्तिमभागमें लोभसंज्वलन बन्धको प्राप्त होता है । ये मध्यकषायकी आस्रवप्रकृतियाँ हैं । अतः निर्दिष्ट भागों से ऊपर इनका संवर हो जाता है । पाँच ज्ञानावरण चार दर्शनावरण यशस्कीर्ति उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय ये मन्दकषायकी आस्रव प्रकृतियाँ हैं और सूक्ष्मसाम्पराय में इनका बन्ध होता है। उससे आगे इनका संवर हो जाता है । ३०. सातावेदनीयका उपशान्तकषाय क्षीणकषाय और सयोगकेवलीके केवल योगसे बन्ध होता है अतः अयोगकेवलीके इसका संवर हो जाता है।
संवर के कारण
स गुतिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजय चारित्रैः ॥२॥
गुप्त समिति धर्म अनुप्रेक्षा परीषहजय और चारित्र से संवर होता है ।
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$१-७, संसारके कारणोंसे आत्माके गोपन-रक्षणको गुप्ति कहते हैं । 'जिससे गोपन हो वह गुप्ति' यह अपादान साधन अथवा 'जो रक्षण करे वह गुप्ति' यह कर्तृसाधन भी गुप्ति शब्द बनता है । दूसरे प्राणियोंकी रक्षा की भावनासे सम्यक् प्रवृत्ति करनेको समिति कहते हैं । भाव या कर्तृसाधन में 'क्ति' प्रत्यय होनेपर समिति शब्द निष्पन्न होता है । आत्माको इष्ट नरेन्द्र सुरेन्द्र मुनीन्द्र आदि स्थानोंमें धारण करे वह धर्म । धर्म शब्द उणादिसे निष्पन्न होता है । शरीर आदिके स्वभावका बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। अनुप्रपूर्व ईक्ष धातुसे भावसाधनमें अकार होनेसे अनुप्रेक्षा शब्द बनता है । जो सहीं जायँ वे परीषह हैं, परीपहोंका जय परीषहजय है । कर्ममें घञ करके तथा अनुबन्धकृत अनित्य मानकर दीर्घ का निषेध करके परीषह शब्द बन जाता है। जो आचरण किया जाय वह चारित्र है ।
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