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७६४ तस्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार
[९।३-४ ६८-९ संवर करनेवालेकी संवरण क्रियामें गुप्ति आदि साधकतम होनेसे करण हैं। 'गुप्ति आदि संवर ही हैं अतः भेदनिर्देश नहीं होना चाहिये' यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि संवर शब्द करणसाधन न होकर 'संवरणं संवर' ऐसा भावसाधन है अर्थात आस्रवनिमित्त कोंके संवरण करनेमें गुप्ति आदि करण होते हैं । अथवा 'संब्रियते इति संवरः' ऐसा कर्मसाधन माननेपर भी गुप्ति आदि पृथक सिद्ध होते हैं, क्योंकि गुप्तिके द्वारा संवर होता है।
१०. यद्यपि संवरका अधिकार है फिर भी 'सः' पद विशेष रूपसे संवरका गुप्ति आदिसे साक्षात् सम्बन्ध जोड़ता है । इससे यह नियम हो जाता है कि यह संवर गुप्ति आदिसे ही होता है अन्य तीर्थस्नान दीक्षा शीर्षोपहार (बलिदान) देवताराधन आदि उपायोंसे नहीं होता है क्योंकि राग द्वेष और मोहसे ग्रहण किये गये कर्मोंकी दूसरे प्रकारसे निवृत्ति नहीं हो सकती। यदि तीर्थस्नानसे संवर हो तो सदा तीर्थजलमें डूबी रहनेवाली मछलियोंको संवरपूर्वक मोक्ष सहज ही हो जाना चाहिये और रागी द्वेषी मोही जीवोंको भी मात्र तीर्थस्नानसे मुक्ति मिल जानी चाहिये । इसी तरह वलिदान आदि भी संवर कारण नहीं हो सकते।
तपसा निर्जरा च ॥३॥ ३१-५. यद्यपि तप दस धर्मोभे अन्तर्भूत है फिर भी विशेष रूपसे निर्जराका कारण बतानेके लिए तथा सभी संवरके हेतुओंमें तपकी प्रधानता जतानेके लिए उसका यहाँ खास तौरसे पृथक् निर्देश किया है । 'च' शब्द 'तप संवरहेतु भी होता है। इस संवरहेतुताका समु. चय करता है । तपके द्वारा नूनन कर्म बन्ध रुककर पूर्वोपचित कोका क्षय भी होता है; क्योंकि तपसे अविपाक निर्जरा होती है। इसी तरह तप सरीखे ध्यान आदि भी निर्जराके कारण होते है। जैसे एक ही अग्नि पाक और भस्म करना आदि अनेक कार्य करती है उसी तरह तपसे देवेन्द्र आदि अभ्युदय स्थानोंकी प्राप्ति भी होती है तथा काँका क्षय भी होता है। एक ही कारणसे अनेकों कार्य होते हैं। अथवा जैसे किसान मुख्यरूपसे धान्यके लिए खेती करता है पयाल तो उसे यों ही मिल जाता है उसी तरह मुख्यतः तपक्रिया कर्मक्षयके लिए ही है, अभ्युदय की प्राप्ति तो पयालकी तरह आनुषंगिक ही है, गौण है। किसीको विशेष अभिप्रायसे उसकी सहज प्राप्ति हो जाती है। गुप्तिका लक्षण
सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥४॥ सम्यक् योगनिग्रहको गुप्ति कहते हैं।
६१-४. पूजापूर्वक क्रिया सत्कार है, यह संयत महान है' ऐसी लोकप्रसिद्धि लोकपंक्ति है इस तरह सत्कार लोकपंक्ति तथा परलोकमें विषय-सुखकी आंकाक्षा आदि हेतुओंसे परे रहकर जो मन वचन कायका यथेच्छ विचरण रोका जाता है वह योगनिग्रह गुप्ति है । इस संक्लेशसे रहित सम्यक् योग निरोध होनेपर तन्निमित्तक कर्मोंका आस्रव रुक जाता है, यही संवर है । गुप्ति तीन हैं-कायगुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्ति । जो अयत्नाचारीके बिना देखे बिना शोधे भूमिपर घूमना, दूसरी वस्तु रखना, उठाना, सोना, बैठना आदि शारीरिक क्रियाएँ होती हैं और इस निमित्तक कोंका आस्रव होता है वह काययोगके निग्रही अप्रमत्त संयमीके नहीं होता। इसी तरह असंवरी-संवररहित जीवके असत्प्रलाप अप्रिय वचन बोलने आदिसे जो वाचिक व्यापारनिमित्तक फर्म आते हैं वे वचननिग्रहीके नहीं आँयगे । जो राग द्वेषादिसे अभिभूत प्राणीके अतीत अनागत विषयाभिलाषा आदिसे मनोव्यापारनिमित्तक कर्म आते हैं वे मनोनिग्रहीके नहीं आयेंगे । अतः योगनिग्रहीके संवर सिद्ध है।
'शरीरका परित्याग सम्पूर्ण रूपसे जबतक नहीं हुआ तबतक इसे प्राणयात्राके लिए कुछ