Book Title: Tattvarth Varttikam Part 02
Author(s): Akalankadev, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 353
________________ ९।५] . नवाँ अध्याय न कुछ बोलना, खाना, पीना, रखना, उठाना, मलमूत्र आदि विसर्जन करना ही पड़ेगा अतः संवर अशक्य है' इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिए समिति-सम्यक प्रवृत्तिका उपदेश देते हैं र्याभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥५॥ ६१-२. पूर्वसूत्रसे 'सम्यक' पदका अनुवर्तन कर प्रत्येकसे उसका सम्बन्ध कर देना चाहिये-सम्यक ईर्या सम्यक भाषा आदि । समिति-अर्थात् सम्यक् प्रवृत्ति । यह संज्ञा पाँचोंकी आगमसिद्ध है। ६३-४. जीवस्थान और विधिको जाननेवाले, धर्मार्थ प्रयत्नशील साधुका सूर्योदय होनेपर चक्षरिन्द्रिय के द्वारा दिखनेयोग्य मनुष्य आदिके आवागमनके द्वारा कुहरा क्षुद्र जन्तु आदिसे रहित मार्गमें सावधानचित्त हो शरीरसंकोच करके धीरे-धीरे चार हाथ जमीन आगे देखकर गमन करना ईर्यासमिति है। इसमें पृथ्वी आदि सम्बन्धी आरम्भ नहीं होते । सूक्ष्मै. केन्द्रिय बादरएकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और असंक्षिपञ्चेन्द्रिय और संक्षिपञ्चेन्द्रिय इन सातके पर्याप्तक और अपर्याप्त कके भेदसे चौदह जीवस्थान होते हैं । ये जीवस्थान पाँचो जाति सूक्ष्म बादर पर्याप्तक और अपर्याप्तक नाम कांके यथा सम्भव उदयसे होते हैं। । ५. स्व और परको मोक्षकी ओर ले जानेवाले स्व-परहितकारक, निरर्थकबकवास रहित मित स्फुटार्थ व्यक्ताक्षर और असन्दिग्ध वचन बोलना भाषासमिति है। मिथ्याभिधान असूया प्रियभेदक अल्पसार शंकित संभ्रान्त कषाययुक्त परिहासयुक्त अयुक्त असभ्य निष्ठुर अधर्मविधायक देशकालविरोधी और चापलूसी आदि वचनदोषोंसे रहित भाषण करना चाहिये। ६. गुण रत्नोंको ढोनेवाली शरीर रूपी गाड़ीको समाधिनगरकी ओर ले जानेकी इच्छा रखनेवाले साधुका जठराग्निके दाहको शमन करनेके लिए औषधिकी तरह या गाड़ीमें ओंगन देनेकी तरह अन्न आदि आहारको बिना स्वादके ग्रहण करना एषणा समिति है। देशकाल तथा शक्ति आदिसे युक्त अगर्हित उद्गम उत्पादन एषणा संयोजन प्रमाण कारण अङ्गार धूम और प्रत्यय इन नवकोटियोंसे रहित आहार ग्रहण किया जाता है। ६७. धर्माविरोधी और परानुपरोधी ज्ञान और संयमके साधक उपकरणोंको देखकर और शोधकर रखना और उठाना आदाननिक्षेपणसमिति है। ८. जहाँ स्थावर या जंगम जीवोंको विराधना न हो ऐसे निर्जन्तु स्थानमें मलमूत्र आदिका विसर्जन करना और शरीरका रखना उत्सर्ग समिति है। ६९. यद्यपि वाग्गुप्तिमें भी सावधानी है पर उनमें भाषासमिति और ईर्यासमिति आदिका अन्तर्भाव नहीं होता; क्योंकि जब गुप्तिमें असमर्थ हो जाता है तब कुशल कर्मोंमें प्रवृत्ति करना समिति है । अतः जाना, बोलना, खाना, रखना उठना और मलोत्सर्ग आदि क्रियाओंमें अप्रमचसावधानीसे प्रवृत्ति करनेपर इन निमित्तोंसे आनेवाले कर्मोंका संवर हो जाता है। १०-१२. प्रश्न-पात्रके अभावमें पाणिपात्रसे आहार लेनेवाले साधुको अन्न आदिके नीचे गिरनेसे हिंसा आदि दोषोंकी संभावना है, अतः एषणा समिति नहीं बन सकती ? उत्तर-पात्रके ग्रहण करनेमें परिग्रहका दोष होता है। निन्थ-अपरिग्रही चयोको स्व करने वाला भिक्षु यदि पात्र ग्रहण करता है तो उसकी रक्षा आदिमें अनेक दोष होते हैं। अतः स्वाधीन करपात्रसे ही निर्बाध देशमें सावधानीसे एकाप्रचित्त हो आहार करने में किसी दोषकी संभावना नहीं है। कपाल या अन्य पात्रको लेकर भिक्षाके लिए जानेमें दीनताका दोष तो है ही। गृहस्थजनोंसे लाये गये पात्र सर्वत्र सुलभ होनेपर भी उनके धोने आदिमें पापका होना अवश्यम्भावी है। अपने पात्रको लेकर भिक्षार्थ जानेमें आशा-तृष्णाकी संभावना है। पहिले

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