Book Title: Tattvarth Varttikam Part 02
Author(s): Akalankadev, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 348
________________ नवा अध्याय संवरका वर्णन ___ आस्रवनिरोधः संवरः ॥१॥ आस्रवके निरोधको संवर ६१-३. कोके आगमनके निमित्तों-मन-वचन और कायके प्रयोगोंका उत्पन्न नहीं होना आस्रव-निरोध है। आस्रवका निरोध होनेपर तत्पूर्वक अनेक सुख-दुःखोंके बीजभूत कर्मोका ग्रहण नहीं होना संवर है। यहाँ 'अभिमतः' ऐसा वाक्य अध्याहृत होता है। जैसे अन्नको प्राणका कारण होनेसे अन्नके कार्यभूत प्राणों में अन्नका उपचार कर लिया जाता है उसी तरह आस्रव-निरोधके कार्यभूत संवरमें आस्रव-निरोधका उपचार कर लिया जाता है । अतः 'आस्रवके निरोध होनेपर संवर होता है' इस अर्थमें आस्रवनिरोधको ही संवर कह दिया है। . 1. निरोध शब्द और संवर शब्द दोनों ही करणसाधन है अतः इनमें सामानाधिकरण्य बन जाता है। अथवा, इस सूत्र में दो पद स्वतन्त्र मानकर योगविभाग कर लेना चाहिये। आस्रवनिरोधके साथ 'हितार्थीको करना चाहिये' इस वाक्यका अध्याहार करके एक वाक्य बनाना चाहिये । उसका प्रयोजन संवर है अर्थात् संवर है प्रयोजन जिसका वह संवर। ६६-९. मिथ्यादर्शन आदि आस्रवके प्रत्ययोंका निरोध होनेसे उनसे आनेवाले कर्मोंका रुक जाना संवर है। द्रव्यसंवर और भावसंवरके भेदसे संवर दो प्रकारका है। आत्माको द्रव्यादि निमित्तोंसे पर्यायान्तर-भवान्तरकी प्राप्ति होना संसार है। इस संसार में कारणभूत क्रिया और परिणामोंकी निवृत्ति भावसंवर है। इस तरह भावबन्धक निरोधसे तत्पूर्वक आनेवाले कर्मपुगलोंका रुक जाना द्रव्यसंवर है। १०-११. संवरके स्वरूपका विशेष परिज्ञान करनेके लिए चौदह गुणस्थानोंका विवेचन आवश्यक है। गुणस्थान चौदह हैं-मिथ्यादृष्टि सासादन-सम्यग्दृष्टि सम्यक मिथ्यादृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि संयतासंयत प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत अपूर्वकरण-उपशमक-क्षपक अनिवृत्तिबादर-उपशमक-झपक सूक्ष्मसाम्पराय-उपशमक-क्षपक उपशान्तकषाय वीतराग-छद्मस्थ क्षीणकषायवीतराग-छद्मस्थ सयोगकवली और अयोगकेवली। ६ १२. जिसके मिथ्यादर्शनका उदय हो वह मिथ्यादृष्टि है। इसके कारण जीवोंका तत्स्वार्थश्रद्धान नहीं होता । मिथ्यादृष्टिके ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे होनेवाले तीनों ज्ञान मिथ्याज्ञान होते हैं। सामान्यतया मिध्यादृष्टि हिताहितपरीक्षासे रहित और परीक्षक इन दो श्रेणियोंमें बाँटे जा सकते हैं । संक्षिपर्याप्तकको छोड़कर सभी एकेन्द्रिय आदि हिताहितपरीक्षासे रहित हैं। संक्षिपर्याप्तक हिताहितपरीक्षासे रहित और परीक्षक दोनों प्रकारके होते हैं। $ १३. मिथ्यादर्शनके उदयका अभाव होनेपर भी जिनका आत्मा अनन्तानुबन्धीके उदयसे कलुषित हो रहा है वे सासादन-सम्यग्दृष्टि हैं। अनादि मिथ्यादृष्टि भव्यके मोहकी छब्बीस प्रकृतियोंका सत्त्व होता है और सादिमिथ्यादृष्टिके २६, २७ या २८ प्रकृतियाँका सत्त्व होता है। ये जब प्रथम सम्यक्त्वको प्रहण करनेके उन्मुख होते हैं तब निरन्तर अनन्तगुणी विशुद्धिको बढ़ाते हुए शुभपरिणामोंसे संयुक्त होते जाते हैं। उस समय ये चार मनोयोगोंमेंसे किसी एक मनोयोग चार वचनयोगोंमेंसे किसी एक वचनयोग औदारिक और वैक्रियिकमेंसे किसी एक काययोगसे युक्त होते हैं । इनके कोई एक कषाय अत्यन्त हीन हो जाती है। साका

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