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८॥२४-२६] आठवाँ अध्याय
७५९ पुद्गलविपाकी हैं । आनुपूर्व्य क्षेत्रविपाकी है । आयुका कार्य भवधारण कराना है। शेष प्रकृतियाँ जीवविपाकी हैं।
प्रदेशबन्धका वर्णननामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्व
नन्तानन्तप्रदेशाः ॥ २४ ॥ अपने नामके अनुसार सभी भवोंमें योग विशेषसे आनेवाले आत्माके सम्पूर्ण प्रदेशों में सूक्ष्म एकक्षेत्रावगाही अनन्तानन्त कर्म पुद्गल प्रदेशबन्ध है।
१-८. 'नामकर्म है प्रत्यय जिनका' ऐसा विग्रह नहीं करके नामके अनुसार यही अर्थ करना चाहिये । सर्वतः-सभी भूत भावी भवोंमें, योगविशेष-मन वचन कायरूप निमित्तसे कर्म पुद्गलोंका आगमन होता है। सूक्ष्म शब्दसे ग्रहणयोग्य पुद्गलोंका निर्देश किया गया है अर्थात् सूक्ष्म पुद्गल ही ग्रहण योग्य होते हैं स्थूल नहीं। एकक्षेत्रावगाहका अर्थ है कि आत्मप्रदेश और कर्मपुद्गल एक ही आकाश प्रदेशमें हैं, क्षेत्रान्तरमें नहीं। स्थितिका तात्पर्य है कि कर्म पुद्गल ठहरे हुए हैं चलते आदि नहीं हैं। सर्वात्मप्रदेशेषुका अर्थ है कि आत्माको कोई भी ऐसा प्रदेश बाकी नहीं है जहाँ कर्म पुद्गल न हों, किन्तु ऊपर-नीचे-बीचमें सब जगह प्रत्येक आत्मप्रदेशमें स्थित हैं। वे अनन्तानन्त हैं न तो संख्यात न असंख्यात और न अनन्त ही। वे पुदलस्कन्ध अभव्योंसे अनन्तगुणें और सिद्धोंके अनन्तवें भाग हैं । वे धनांगुलके असंख्येय भागरूप क्षेत्रावगाही एक-दो-तीन-चार संख्यात असंख्यात समयकी स्थितिवाले, पाँच वर्ण पाँच रस दो गन्ध और चार स्पर्शवाले तथा आठ प्रकारके कर्मरूपसे परिणमन करनेके योग्य हैं। वे योग-क्रियासे जाते हैं और आत्मप्रदेशोंपर ठहर जाते हैं । यही प्रदेशबन्ध है।
सद्वेधशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥ २५॥ ६१-३. शुभ-प्रशस्त । तिर्यगायु मनुष्यायु और देवायु ये तीन शुभ आयुएँ, मनुष्य. गति देवगति पंचेन्द्रियजाति पाँच शरीर तीन अंगोपांग समचतुरस्रसंस्थान वर्षभनाराच संहनन प्रशस्त वर्ण रस गन्ध स्पर्श मनुष्यगत्यानुपूर्य देवगत्यानुपूर्य अगुरुलघु परघात अच्छास आतप उद्योत प्रशस्तविहायोगति त्रस बादर पर्याप्ति प्रत्येकशरीर स्थिर शुभ सुभग सुखर आदेय यशस्कीर्ति निर्माण और तीर्थंकर ये सैंतीस नामकर्म, उच्चगोत्र और सातावेदनीय, सब मिलकर ४२ पुण्य प्रकृतियाँ हैं।
अतोऽन्यत् पापम् ॥ २६ ॥ पुण्य प्रकृतियोंसे भिन्न शेष ८२ पाप प्रकृतियाँ हैं। पाँच ज्ञानावरण, नव वर्शनावरण, छब्बीस मोहनीय , पाँच अन्तराय, 'नरकगति तिर्यचगति एकेन्द्रिय आदि चार आतियाँ पाँच संस्थान पाँच संहनन अप्रशस्त वर्ण रस गन्ध स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्व्य तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य उपघात अप्रशस्त विहायोगति स्थावर सूक्ष्म अपर्याप्त साधारणशरीर दुर्भग दुःस्वर अनादेय अयशस्कीर्ति' ये चौतीस नामकर्म, असातावेदनीय, नरकायु और नीचगोत्र ये ८२ पाप प्रकृतियाँ हैं । यह सब बन्ध पदार्थ अवधि मनःपर्यय और केवलज्ञानरूप प्रत्यक्षप्रमाणसे गम्य है और उनके द्वारा उपदिष्ट आगमसे अनुमेय है।
आठवाँ अध्याय समाप्त