Book Title: Tattvarth Varttikam Part 02
Author(s): Akalankadev, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 344
________________ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार E८१२-१५ ४३-४५. गति आदि विहायोगति पर्यन्त प्रकृतियाँ अकेली-अकेली हैं और प्रत्येक शरीर आदि प्रकृतियोंका सेतर-पतिपक्षसहितसे सम्बन्ध करना है अतः सबका एक समास नहीं किया है। तीर्थंकर प्रकृति सर्वोत्कृष्ट है और अन्त्य है, घरमशरीरीके ही इसका उदय देखा जाता है अतः पृथक् इसका निर्देश किया गया है। गोत्रकर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ ___ उच्चैर्नीचैश्च ॥१२॥ ६१-३. जिसके उदयसे लोकपूजित महत्त्वशाली इक्ष्वाकु उग्र कुरु हरि और ज्ञाति आदि वंशोंमें जन्म हो वह उच्चगोत्र है । जिसके उदयसे निन्द्य दरिद्र अप्रसिद्ध और दुःखाकुल कुलोंमें जन्म हो वह नीचगोत्र है। अन्तरायकी उत्तर प्रकृतियाँ दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् ॥१३॥ ६१-३. अन्तराय शब्दकी अनुवृत्ति करके उससे दानादिका सम्बन्ध कर लेना चाहियेदानान्तराय आदि । जिसके उदयसे देनेकी इच्छा करते हुए नहीं दे पाता, लाभकी इच्छा रखते हुए भी लाभ नहीं कर पाता, भोगकी इच्छा होते हुए भी नहीं भोग पाता, उपभोगकी इच्छा होते हुए भी उपभोग नहीं कर पाता, कार्यों में उत्साह करना चाहता है पर निरुत्साहित हो जाता है वे दानान्तराय आदि पाँच अन्तराय हैं । यद्यपि भोग और उपभोग दोनों सुखानुभवमें निमित्त होते हैं फिर भी एक बार भोगे जानेवाले गन्ध माला स्नान वस्त्र और अन्न पान आदिमें भोग-व्यवहार तथा शय्या आसन स्त्री हाथी रथ घोड़ा आदिमें उपभोग-व्यवहार होता है। इस तरह उत्तर प्रकृतियोंकी संख्या है । ज्ञानावरण और नामकर्मकी असंख्यात भी प्रकृतियाँ होती हैं। जबतक ये कर्म फल देकर नहीं झड़ जाते तबतकके कालको स्थिति कहते हैं। प्रकृष्ट प्रणिधानसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है तथा निकृष्ट प्रणिधानसे जघन्य । उत्कृष्ट स्थितिबन्धका वर्णनआदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोव्यः परा स्थितिः ॥१४॥ ६१-३. आदिके ही (मध्य और अन्तके नहीं) तीन ही (चार या दो नहीं ) कर्म अर्थात ज्ञानावरण दर्शनावरण और वेदनीय तथा अन्तरायकी तीस कोड़ाकोड़ी सागर उत्कृष्ट स्थिति है। समान स्थिति होनेसे सूत्रक्रमका उल्लंघन कर अन्तरायका निर्देश किया है। ४. 'कोटीकोट्यः' में वीप्सार्थक द्वित्व नहीं है, वैसी अवस्था में बहुवचनकी आवश्यकता नहीं थी किन्तु राजपुरुषकी तरह कोटियोंकी कोटी ऐसा षष्ठीसमास है। ६५-७. परा अर्थात उत्कृष्टस्थिति । संज्ञी पञ्चेन्द्रियपर्याप्तकके यह उत्कृष्टस्थिति समझनी चाहिये । एकेन्द्रिय पर्याप्तकके सागर, द्वीन्द्रियपर्याप्तकके २५का सागर, त्रीन्द्रियपर्याप्तकके ५०का सागर, चतुरिन्द्रियपर्याप्तकके १००का ३ सागर, असंज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्तकके १०००का सागर,और संज्ञिपंचेन्द्रियापर्याप्तकके अन्तःकोडाकोड़ी सागर उत्कृष्ट स्थिति है। एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके पल्योपमके असंख्यातभागकम स्वपर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण तथा दो इन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय अपर्याप्तसंज्ञियोंके पल्योपमके संख्यातभागसे कम स्वपर्याप्तककी स्थिति समझनी चाहिये। मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥१५॥ संज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्टस्थिति ७० कोड़ाकोड़ी सागर है। पर्याप्तक एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियोंके क्रमशः एकसागर पच्चीससागर पचाससागर और

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