Book Title: Tattvarth Varttikam Part 02
Author(s): Akalankadev, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 332
________________ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [८१ सक वचन भी परस्परविरोधी होनेसे प्रमाण नहीं कहे जा सकते। इस तरह अव्यवस्थित होनेसे वेदको प्रमाण नहीं कह सकते। $ १५-१९. अर्हन्त भगवान के द्वारा प्रभाषित परमागममें सर्वत्र प्राणिवधका निषेध किया है, अहिंसाको ही धर्म माना है अतः प्राणिवध धर्महेतु नहीं हो सकता। अर्हन्तके परमागमको पुरुषकृति होनेसे अप्रमाण कहना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि वह अतिशय ज्ञानोंका आकर है । इस आगममें नय प्रमाण आदि अधिगमके उपायोंसे बन्ध मोक्ष आदिका समर्थन तथा जीवादि तत्वोंका निरूपण है। अतः रत्नाकरकी तरह आहेत आगम ही समस्त अतिशय ज्ञानोंका आकर है। प्रश्न-कल्प व्याकरण छन्द ज्योतिष आदि अतिशय ज्ञान अन्यत्र भी देखे जाते हैं अतः आहेत आगमको ही ज्ञानका आकर कहना उपयुक्त नहीं है ? उत्तर-अन्यत्र देखे जानेवाले अतिशय ज्ञानोंका मूल उद्भवस्थान आहेत प्रवचन ही हैं जैसे कि रत्नोंका मूल उद्भवस्थान समुद्र है। कहा भी है-"यह अच्छी तरह निश्चित है कि अन्य मतोंमें जो युक्तिवाद और अच्छी बातें चमकती हैं वेतुम्हारी ही हैं। वे सब चतुर्दश पूर्वरूपी महासागरसे निकली हुई जिन वाक्यरूपी बिन्दुएँ हैं।" यह बात केवल श्रद्धामात्र गम्य नहीं है किन्तु युक्तिसिद्ध है। जैसे गाँव नगर या बाजारोंमें कुछ रत्न देखे जाते हैं फिर भी उनकी उत्पत्तिका स्थान रत्नाकर समुद्र ही माना जाता है क्योंकि अधिकतर रत्न वहीं है उसी तरह सर्वातिशय ज्ञानके मूल निधान होनेसे जैन प्रवचन ही उनका मूल आकर है । यह शंका भी ठीक नहीं है कि-'यदि वेद व्याकरण आदि आर्हत प्रवचनसे निकले हुए हैं तो उनकी तरह प्रमाण भी होने चाहिये, और उनमें बताये गये हिंसादि अनुष्ठान दानादिकी तरह निर्दोष माने जाने चाहिए। क्योंकि वे निःसार हैं । जैसे नकली रत्न क्षार और सीप आदि भी रत्नाक से उत्पन्न होते हैं परन्तु निःसार होनेसे त्याज्य हैं उसी तरह जिनशासन समुद्रसे उत्पन्न भी वेदादि निःसार होनेसे प्रमाण नहीं हैं। २०-२६. यदि हिंसाको धर्मसाधन माना जाय तो मछलीमार चिड़ीमार आदि हत्यारोंको भी धर्मप्राप्ति समान रूपसे होनी चाहिये और तब अहिंसाको धर्म कहना अयुक्त हो जायगा। 'यज्ञ हिंसाके सिवाय दूसरी हिंसा पापका कारण है। यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि दोनों हिंसाओंमें समानरूपसे प्राणिवध होता है और दुःखहेतुता मी समान है अतः फल भी एक जैसा ही होना चाहिये । यज्ञकी वेदीमें किया गया पशुवध पापका कारण है, क्योंकि वह प्राणवियोगका हेतु है जैसे अन्यत्र किया गया पशुवध । अथवा यज्ञमें किये गये पशुवधकी तरह बाहिर किये पशुवधको भी पुण्यहेतु मानना चाहिये "स्वयंभूने पशुओंकी सृष्टि यज्ञमें होमनेके लिए की है, अतः यज्ञवध पापहेतु नहीं हो सकता" यह पक्ष असिद्ध है; क्योंकि पशुसृष्टि ब्रह्माने की है यही बात अभी सिद्ध नहीं हो सकी है। यदि ब्रह्माने पशुसृष्टि यज्ञके लिए की है तो फिर उनका खरीद बिक्री आदि अन्य उपयोग नहीं करना चाहिये, अन्यथा दोष होगा, जैसे कि कफनाशक औषधिका अन्यथा उपयोग होनेपर दोष होता है । 'जैसे मन्त्रसंस्कृत विष मरणका कारण नहीं होता उसी तरह मन्त्र संस्कारपूर्वक होनेवाला पशुवध भी पापहेतु नहीं हो सकता' यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें प्रत्यस विरोध देखा जाता है। जैसे कि मन्त्रसे संस्कृत विष प्रत्यक्षसे ही अमृतमय देखा जाता है और जैसे रस्सी आदिके बिना केवल मन्त्र बलसे ही जलस्तम्भन मनुष्यस्तम्भन आदि कार्य प्रत्यक्षसे देखे जाते हैं उसी तरह यदि केवल मन्त्रबलसे ही यज्ञवेदीपर पशुओंका घात देखा जाता तो यहाँ मन्त्रबलपर विश्वास किया जाता, परन्तु याज्ञिक लोग जिस निर्दयतासे रस्सी आदिसे बाँधकर पशुवध करते हैं वह किसीसे छिपा नहीं है । अतः यहाँ मन्त्रसामर्थ्यकी कल्पना उचित नहीं है। और जिस प्रकार शस्त्र आदिसे प्राणिहत्या करनेवाले दोषी हैं और उन्हें अशुभ भावोंके कारण पापबन्ध होता है उसी तरह मन्त्रोंसे पशुवध करनेवाले

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