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८॥३-४] आठवाँ अध्याय
७४७ कारण है फिर भी पूर्वोपात्त कर्मके वे परिणाम हैं अतः कार्यरूपसे आत्माको परतन्त्र करनेके कारण बन्ध कहे जाते हैं । 'बध्यते इति बन्धः' अर्थात् मिथ्यादर्शनादि रूपसे जो बँधे वह बन्ध यह कर्मसाधन भी बन जाता है। इसी तरह 'ज्ञान दर्शन अव्याबाध अनाम अगोत्र और अनन्तराय आदि पुरुषशक्तियोंका जो प्रतिबन्ध करे वह बन्ध' यह कर्तृसाधन बन जाता है। मात्र परतन्त्र करनेकी विवक्षामें 'बन्धनं बन्धः' यह भावसाधन बनता है। भावसाधनमें भी 'ज्ञान ही आत्मा' की तरह अभेदविवक्षामें सामानाधिकरण्य बन जाता है।
६ १२. जैसे भण्डारसे पुराने धान्य निकाल लिये जाते हैं और नये भर दिये जाते हैं उसी तरह अनादि कार्मण शरीर रूप भण्डारमें कर्मोंका आना-जाना होता रहता है। पुराने कर्म फल देकर झड़ जाते हैं और नये कर्म आ जाते हैं । इस तरह उपचय-अपचय होता रहता है। बन्ध के भेद
प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशास्तद्विधयः ॥ ३ ॥ ६१ ३. स्त्रियां क्तिः' इस सूत्र में अकर्तरि' की अनुवृत्ति आती है । अतः ज्ञानावरणादि की अर्थानवगम आदि प्रकृति की जाय जिससे वह प्रकृति है। प्रकृति शब्द अपादानसाधन है। स्थिति-अवस्थान । अनुभव-अनुभवन । ये दोनों शब्द भावसाधन हैं। 'प्रदिश्यते इति प्रदेशः' यह प्रदेश शब्द कर्मसाधन है।
४-७. प्रकृति अर्थात् स्वभाव। जैसे नीमकी प्रकृति कडुआपन और गुड़को प्रकृति मधुरता है उसी तरह ज्ञानावरणकी प्रकृति है अर्थज्ञान नहीं होने देना । दर्शनावरणकी प्रकृति अर्थका अनालोचन, वेदनीयकी सुख-दुःखसंवेदन, दर्शनमोहकी तत्त्वार्थका अश्रद्धान, चारित्रमोहकी असंयमपरिणाम, आयुकी भवधारण, नामकी नारक आदि नामव्यवहार कराना, गोत्रकी ऊँच-नीच व्यवहार तथा अन्तरायकी प्रकृति दानादिमें विघ्न करना है । यह जिससे हो वह प्रकृतिबन्ध है । जैसे बकरी, गाय और भैंस आदिके दूध अपने मधुर स्वभावको नहीं छोड़ते उसी तरह ज्ञानावरण आदिका अपने अर्थानवगम आदिस्वभावसेच्युत नहीं होना स्थिति है। जैसे बकरी आदिके दूधों में तीव्र मन्द और मध्यम रूपसे रसविशेष होता है उसी तरह कर्मपुद्गलोंकी फलदान शक्ति अनुभव कहलाती है । कर्मरूपसे परिणत पुद्गलस्कन्धोंके परमाणुओंकी गिनती प्रदेश बन्ध है। विध शब्द प्रकारार्थक है । अर्थात् प्रकृति-आदि बन्धके चार प्रकार हैं।
६८-१०. प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगोंसे होते हैं तथा स्थिति और अनुभाग कषायोंसे। इनके तारतम्यसे बन्धमें विचित्रता होती है, क्योंकि कारणके अनुरूप ही कार्य होता है।
११. प्रकृतिबन्ध मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतिके भेदसे दो प्रकारका है।
आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः ॥४॥
ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय आयु नाम गोत्र और अन्तराय ये मूल प्रकृतिबन्धके आठ भेद हैं।
१. द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिसे सामान्यतया एक ही प्रकृतिबन्ध है, अतः आद्य शब्दमें एकवचन दिया गया है । उसीके भेद ज्ञानावरण आदि हैं, अतः उनमें बहुवचनका प्रयोग किया है। समानाधिकरण होनेपर भी वचनभेद हो जाता है जैसे कि 'श्रोतारः प्रमाणम् , गावो धनम्' यहाँ, अतः आद्यशब्दमें बहुवचनकी आशंका नहीं करनी चाहिये।
६२. ज्ञानावरण आदि शब्दोंकी यथासम्भव कर्तृसाधन आदिमें व्युत्पत्ति करनी चाहिये। जो आवरण करे या जिसके द्वारा आवरण किया जाय वह आवरण है। आवरण शब्दका सम्बन्ध ज्ञान और दर्शनमें कर लेना चाहिये । बहुलापेक्षया कर्तामें भी अनट प्रत्यय