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तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार
[६२७ ६२. 'शान्तिः शौचमिति' सूत्रसे प्रकारवाची 'इति' शब्दका सब जगह अनुवर्तन करना चाहिए। इससे अनुक्त प्रकारोंका संग्रह हो जाता है।
४. जैसे शराबी मदमोहविभ्रमकरी सुराको पीकर उसके नशेमें अनेक विकारोंको प्राप्त होता है अथवा जैसे रोगी अपध्य भोजन करके अनेक बात-पित्तादि विकारोंसे प्रस्त होता है उसी तरह उक्त आस्रवविधिसे ग्रहण किये गये ज्ञानावरणादि आठ कमोंसे यह आत्मा अनेक संसार-विकारोंको प्राप्त होता है।
६५-७. जैसे दीपक घटादिका प्रकाशक होता है उसी तरह शास्त्र भी पदार्थोंका प्रकाशक होता है । 'यह परिणमन या शक्ति अमुक फलको उत्पन्न करेगी' यह तो स्वभावव्याख्यान है। शास्त्र भी अतिशयज्ञानवाले युगपत् सर्वार्थावभासनसमर्थ प्रत्यक्षज्ञानी केवलीके द्वारा प्रणीत हैं, अतः प्रमाण हैं । इसीलिए शास्त्र में वर्णित ज्ञानावरणादिके आस्रवके कारण आगमानुगृहीत हैं और प्राय हैं । शास्त्र भी स्वभावको ही प्रकट करता है। 'शास्त्रसिद्ध भी पदार्थव्यवस्था होती है। इसमें किसी भी वादीको विवाद नहीं है। वैशेषिक पृथिव्यादि द्रव्योंका कठिन दव उष्ण और चलनस्वभाव, रूपादिगुणोंको उन उन इन्द्रियों के द्वारा गृहीत होनेका स्वभाव और उत्क्षेपण अवक्षेपण आदिका संयोग और विभागसे निरपेक्षकारण होनेका स्वभाव आगमसे ही स्वीकार करते हैं । सांख्य सत्त्व रज और तमगुणोंका प्रकाश प्रवृत्ति आदि स्वभाव म नते हैं। बौद्ध अविद्या आदिका संस्कार आदिको उत्पन्न करनेका प्रतिनियत स्वभाव स्वीकार करते हैं। अतः कोई उपालम्भ नहीं है।
६७. प्रश्न-आगममें ज्ञानावरणके बन्धकालमें दर्शनावरण आदिका भी बन्ध बताया है, अतः प्रदोष आदि ज्ञानापरणके ही आस्रवके कारण नहीं हो सकते, सभी कमोंके आस्रवके कारण होंगे ? उत्तर-प्रदोष आदि कारणोंसे ज्ञानावरण आदि उन कोंमें विशेष अनुभाग पड़ता है । प्रदोष आदिसे प्रदेशबन्ध तो सबका होता है पर अनुभाग उन्हीं उन्हीं ज्ञानावरणादिमें पड़ता है। अतः अनुभागविशेषसे प्रदोष आदिका आस्रवभेद हो जाता है।
छठाँ अध्याय समाप्त