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७२८ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार
[७।१०-११ रूपसे निन्दनीय होता है। अतः परिग्रहसे विरक्त होना श्रेयस्कर है। इस तरह हिंसादिकमें अपाय और अवद्यकी भावना करनी चाहिए।
दुःखमेव वा ॥१०॥ असातावेदनीयके उदयसे होनेवाला परिताप दुःख है । ये हिंसादि दुःखरूप ही हैं।
६१-४ जैसे प्राणके कारण अन्नको प्राण कह देते हैं उसी तरह दुःखके कारण हिंसादिमें कार्यभूत दुःखका उपचार करके उन्हें दुःख कह देते हैं । अथवा, जैसे धनसे अन्न आता है और अन्नसे प्राणस्थिति होती है अतः कारणके कारणमें कार्यका उपचार करके धनको प्राण कहते हैं उसी तरह हिंसादि असातावेदनीयके कारण हैं और असाता दुःखका कारण है, अतः हिंसादिको भी दुःख कहते हैं। कहा भी है-"धन मनुष्यका बाहिर घूमनेवाला प्राण है । जो किसीका धन हरता है वह उसके प्राण ही हरता है।" जैसे मुझे वध या परपीडा असह्य है उसी तरह सभी प्राणियोंको। जैसे मुझे मिथ्या बात या कटुक मर्मच्छेदी वचन सुनकर अतितीव्र अभूतपूर्व दुःख होता है उसी तरह सभीजीवोंको । जैसे मेरी चीज वा धन चोरी जानेपर अपूर्व दुःख होता है उसी तरह अन्यको भी । जैसे कोई मेरी स्त्री आदिका परिभव करे तो तीव्र मानस पीड़ा होती है उसी तरह अन्यको भी। जिस तरह मुझे परिग्रह न प्राप्त हो या प्राप्त होकर नष्ट हो जाय तो आकांक्षा रक्षा या शोक आदिसे दुःख होता है उसी तरह सभी प्राणियोंको। इस तरह अपनी आत्माकी तरह परको समझकर हिंसादिसे विरक्त होना श्रेयस्कर है। परांगना संस्पर्शमें सुखकी कल्पना निरी मूर्खता है क्योंकि वह मुख नहीं है, वह तो वेदनाका प्रतिकार है। जैसे खुजलोका रोगी अपनी खुजाल मिटानेके लिए नख या पत्थर आदिसे खुजाता है, फिर भी खुजली शान्त नहीं होती, गेहूलुहान होता है और दुःखी होता है, उस खुजानेके दुःखको भी थोड़ी देरके लिए खाज बन्द हो जानेके कारण सुख मान बैठता है उसी तरह मैथुनसेवी मोहवश दुःखको भी सुख मानता है। ये सब हिंसादि दुःखके कारण होनेसे दुःखरूप ही हैं।
अन्य भावनाएँमैत्री प्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु ॥११॥
प्राणिमात्रमें मैत्री, गुणिजनोंमें प्रमोद, दुःखी जीवोंमें करुणा तथा विरुद्धचित्तवालों में माध्यस्थ्य भाव रखना चाहिए।
१-४. मन वचन काय कृतकारित और अनुमोदन हर प्रकारसे दूसरेको दुःख न होने देनेकी अभिलाषाको मैत्री कहते हैं। मुखकी प्रसन्नता नेत्रका आह्लाद रोमाञ्च स्तुति सद्गुणकीर्तन आदिके द्वारा प्रकट होनेवाली अन्तरंगकी भक्ति और राग प्रमोद है। शारीर और मानस दुःखोंसे पीड़ित दीन प्राणियोंके ऊपर अनुग्रहरूप भाव कारुण्य है। रागद्वेषपूर्वक किसी एकपक्षमें न पड़नेके भावको माध्यस्थ्य भाव-तटस्थभाव कहते हैं।
६५-७. अनादिकालीन अष्टविध कर्मबन्धनसे तीव्र दुःखकी कारणभत चारोंगतियों में जो दुख उठाते हैं वे सत्त्व हैं । सम्यग्दर्शन ज्ञान आदि गुणोंसे विशिष्ट पुरुष गुणाधिक हैं। असाता वेदनीयके उदयसे जो शारीर या मानस दुःखोंसे संतप्त हैं वे क्लिश्यमान हैं । तत्त्वार्थोपदेश श्रवण और ग्रहणके जो पात्र होते हैं उन्हें विनेय कहते हैं। अविनेय अर्थात् विपरीत वृत्तिवाले। इनमें मैत्री आदि.भावनाएँ रखनी चाहिए । 'मैं सब जीवोंके प्रति क्षमा भाव रखता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा करें, मेरी सब जीवोंसे प्रीति है किसीसे वैर नहीं है' इत्यादि प्रकारकी मैत्री भ.वना सब जीवोंमें करनी चाहिए। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राधिक गुणिजनों की वन्दना स्तुति सेवा आदिके द्वारा प्रमोद भावना भानी चाहिए । मोहाभिभूत, कुमति कुश्रुत और विभंग ज्ञानयुक्त विषयतृष्णासे जलनेवाले हिताहितमें विपरीत प्रवृत्ति करनेवाले विविध दुःखोंसे पीड़ित दीन