________________
७।१८-१९ ] सातवाँ अध्याय
७३३ प्रसंग नहीं देना चाहिए, क्योंकि आभ्यन्तर परिग्रह ही प्रधानभूत है, उसके ग्रहण करनेसे बाह्यका ग्रहण तो हो ही जाता है । जिस प्रकार प्राणका कारण होनेसे अन्नको प्राण कह देते हैं उसी तरह कारणमें कार्यका उपचार करके मूर्छाके कारणभूत बाह्य पदार्थको भी मूर्छा कह देते हैं।
५-६. 'प्रमत्तपद'की अनुवृत्ति यहाँ भी होती है। अतः ज्ञान दर्शन और चारित्र आदिमें होनेवाले ममत्वभावको मूर्छा या परिग्रह नहीं कह सकते। ज्ञान-दर्शनादिवालोंके मोह न होनेसे वे अप्रमत्त हैं और इसीलिए अपरिग्रही हैं। ज्ञानादि तो आत्माके स्वभाव हैं, अहेय हैं अतः वे परिग्रह हो ही नहीं सकते । रागादि कर्मोदयजन्य हैं । अनात्मस्वभाव हैं अतः हेय हैं, अतः इनमें होनेवाला 'ममेदम्' संकल्प परिग्रह है और यह परिग्रह ही समस्त दोषोंका मूल है। ममत्व संकल्प होनेपर उसके रक्षणादिकी व्यवस्था करनी होती है और उसमें हिंसादि अवश्यभावी हैं, उसके लिए मूठ भी बोलता है, चोरी करता है और क्या कुकर्म नहीं करता ? और इनसे नरकादि अशुभ गतियोंका पात्र बनता है, इस लोकमें भी सैकड़ों आपत्तियों और आकुलताओंसे व्याकुल रहता है। व्रतीका लक्षण
निःशल्यो व्रती ॥१८॥ शल्यरहित ब्रती होता है।
६१-२. अनेक प्रकारकी वेदनारूपी सुइयोंसे प्राणीको जो छेदें वे शल्य हैं। जिस प्रकार शरीरमें चुभे हुए काँटा आदि प्राणीको बाधा करते हैं उसी तरह कर्मोदयविकार भी शारीर और मानस बाधाओंका कारण होनेसे शल्यकी तरह शल्य कहा जाता है।
३. शल्य तीन प्रकारकी हैं-माया मिथ्यादर्शन और निदान । माया अर्थात् वंचना छल-कपट आदि । विषयभोगकी आकांक्षा निदान है। मिथ्यादर्शन अर्थात् अतत्त्वश्रद्धान । इन तीन शल्योंसे निकला हुआ निःशल्य व्यक्ति व्रती होता है।
४-८. प्रश्न-निःशल्यत्व और व्रतित्व दोनों पृथक् पृथक हैं, अतः निःशल्य होनेसे व्रती नहीं हो सकता । कोई भी दण्डके सम्बन्धसे 'छत्री' नहीं हो सकता । अतः व्रतके सम्बन्धले व्रती कहना चाहिए और शल्यके अभावमें निःशल्य । यदि निःशल्य होनेसे व्रती होता है तो या तो व्रती कहना चाहिए या निःशल्य । 'निःशल्य हो या व्रती हो' यह विकल्प मानकर विशेषणविशेष्य भाव बनाना भी उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा करने में कोई विशेष फल नहीं है। जैसे 'देवदत्तको घी दाल या दहीसे भोजन कराना' यहाँ विभिन्न फल हैं वैसे यहाँ चाहे 'निःशल्य कहो या व्रती' दोनों विशेषणोंसे विशिष्ट एक ही व्यक्ति इष्ट है। उत्तर-निःशल्यत्व और अतित्वमें अंग-अंगिभाव विवक्षित है। केवल हिंसादिविरक्ति रूप व्रतके सम्बन्धसे व्रती नहीं होता जब तक कि शल्योंका अभाव न हो जाय । शल्योंका अभाव होनेपर ही व्रतके सम्बन्धसे व्रती होता है । जैसे 'बहुत घी दूधवाला गोमान्' यहाँ गायें रहनेपर भी यदि बहुत घी-दूध नहीं होता तो उक्त प्रयोग नहीं किया जाता उसी तरह सशल्य होनेपर व्रतोंके रहते हुए भी व्रती नहीं कहा जायगा । जो निःशल्य होता है वही व्रती है । जैसे 'तेज फरसेसे छेदता है। यहाँ अप्रधान फरसा छेदनेवाले प्रधान कर्ताका उपकारक है उसीतरह निःशल्यत्वगुणसे युक्त व्रत व्रती आत्माके विशेषक होते हैं। व्रतीके भेद
अगार्यनगारश्च ॥१९॥ अगारी-गृहस्थ और अनगारी-मुनिके भेदसे व्रती दो प्रकारके हैं ।