Book Title: Tattvarth Varttikam Part 02
Author(s): Akalankadev, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 328
________________ ७४० तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [७॥३१-३४ क्षेत्र वास्तु आदिकी तरह परिग्रहबुद्धिसे अपने अधीन करके परिमाण नहीं किया जाता। इन दिशाकी मर्यादाओंका उल्लंघन प्रमाद मोह और चित्तव्यासंगसे हो जाता है। ___ आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः ॥३१॥ ६१-६. अपने संकल्पित देशसे बाहर स्थित व्यक्तिको प्रयोजनवश कुछ पदार्थ लानेकी आज्ञा देना आनयन है । स्वीकृत मर्यादासे बाहर स्वयं न जाकर और दूसरेको नबुलाकर भी नौकरके द्वारा इष्टव्यापार सिद्ध करना प्रध्यप्रयोग है। मर्यादाके बाहरके नौकर आदिको खाँसकर या अन्य प्रकारसे शब्द करके कार्य कराना शब्दानुपात है। 'मुझे देखकर काम जल्दी होगा' इस अभिप्रायसे अपने शरीरको दिखाना रूपानुपात है। नौकर चाकरोंको संकेत करनेके लिए कंकड़ पत्थर आदि फैंकना पुद्गलक्षेप कहा जाता है। उक्त अतिचारोंमें स्वयं मर्यादाका उल्लंघन नहीं करके अन्यसे करवाता है, अतः इन्हें अतिक्रम कहते हैं। यदि स्वयं उल्लंघन करता तो व्रतका लोप ही हो जाता । ये देशव्रतके अतिचार हैं। कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥३२॥ ६१-७. चारित्रमोहात्मक रागके उदयसे हास्ययुक्त अशिष्टवचनके प्रयोगको कन्दर्प कहते हैं । कायकी कुचेष्टाओंके साथ ही साथ होनेवाला हास्य और अशिष्ट प्रयोग कौत्कुच्य कहलाता है। शालीनताका त्यागकर धृष्टतापूर्वक यद्वा तद्वा प्रलाप-बकवास मौखर्य है। प्रयोजनके बिना ही आधिक्यरूपसे प्रवर्तन अधिकरण कहलाता है। निरर्थक काव्य आदिका विन्तन मानस अधिकरण है। निष्प्रयोजन परपीड़ादायक कुछ भी बकवास वाचनिक अधिकरण है। बिना प्रयोजन बैठे या चलते हुए सचित्त या अचित्त पत्र पुष्प फलोंका छेदन मर्दन कुट्टन या क्षेपण आदि करना, तथा अग्नि विष क्षार आदि देना कायिक अधिकरण है। जिसके जितने उपभोग और परिभोगके पदार्थोंसे काम चल जाय वह उसके लिए अर्थ है उससे अधिक पदार्थ रखना उपभोगपरिभोगानर्थक्य है । उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रतमें इच्छानुसार परिमाण किया जाता है और सावद्यका परिहार किया जाता है, पर यहाँ आवश्यकताका विचार है । जो संकल्पित भी है पर यदि आवश्यकतासे अधिक है तो अतिचार है। उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रतके अतिचारों में सचित्तसम्बन्ध आदि रूपसे मर्यादातिक्रम विवक्षित है अतः इसका वहाँ कथन नहीं किया। ये पाँच अनर्थदण्डविरतिके अतीचार हैं। योगदुःप्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥३३॥ ६१-५. क्रोधादि कषायोंके वश होकर शरीरका विचित्र विकृतरूपसे हो जाना, निरर्थक अशुद्ध वचनोंका प्रयोग और मनका उपयोग नहीं लगना योगदुःप्रणिवान है। अनादर-अनुत्साह, कर्तव्यकर्मका जिस किसी तरह निर्वाह करना । चित्तकी एकाग्रता न होना और मनमें समाधिरूपताका न होना स्मृत्यनुपस्थान है। मनोदुष्प्रणिधानमें अन्य विचार नहीं आता, जिस विषयका विचार किया जाता है उसमें भी क्रोधादिका आवेश आ जाता है, किन्तु स्मृत्यनुपस्थानमें चिन्ताके विकल्प चलते रहते हैं और चित्तमें एकाग्रता नहीं आती। अथवा, रात्रि और दिनको नित्यक्रियाओंको ही प्रमादकी अधिकतासे भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है। ये पाँच सामायिकके अतीचार हैं। अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥३४॥ ६१-४. प्रत्यवेक्षण-देखना, प्रमार्जन-शोधना । बिना देखे और बिना शोधे हुए भूमिपर मलमूत्रादि करना, बिना देखे बिना शोधे अर्हन्त या आचार्यकी पूजाके उपकरणोंका रखना उठाना गन्ध माला वस्त्र पात्र आदिका रखना, बिना देखे बिना शोधे संथारा आदि बिछाना, भूख आदिके

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